________________
( १३० )
श्रीमन्त्रराज गुणकल्पमहोदधि ॥
को सूंघकर भी, स्वादुरसों ( १ ) का नोकर भी मृदुभावों (२) को देखकर भी, तथा चित्त की वृत्तिका निवारण न करके भी प्रौदासीन (३) को धारणकर free विषयों के भ्रम को दूर कर बाहर तथा भीतर सब ओर चिन्ताकी चेष्टा को छोड़कर योनी पुरुष तन्मयभाव को प्राप्त होकर निरन्तर उदासीन नाव को प्राप्त कर लेता है । २२-२५ ॥
अपने २ ग्राह्य (४) (विषयों) का ग्रहण करती हुई न भी रोक सके तथापि उन्हें उनमें प्रवृत्त न करे तो भी प्रकाशित हो जाता है ॥ २६ ॥
fe भी जहां २ प्रवृत्त होता है उस २ में से उसे हटाया नहीं जा स कता है, क्योंकि हटानेसे उसकी उनमें अधिक प्रवृत्ति होती है तथा न हटानेसे शान्त हो जाता है ॥ २७ ॥
इन्द्रियों को चाहें उसे शीघ्र ही तत्व
जिस प्रकार मद से उन्मत्त हामी हटानेसे भी अधिक मत्त (५) होता है तथा निवारण न करने से अभिलाषा को प्राप्त कर शान्त हो जाता है, उसी प्रकार मनको भी जानना चाहिये ॥ २८ ॥
जब, जिस प्रकार, जहां और जिससे, योगीका चल (६) चित्त स्थिर "होता हो, तब, उस प्रकार वहां और उससे, उसे किसी प्रकार भी हटाना नहीं चाहिये ॥ २९ ॥
इस युक्तिसे अभ्यास करनेवाले पुरुषका अति चञ्चन भी चित्त अङ्गुलि अग्रभाग पर स्थापित दण्डके समान स्थिर हो जाता है ॥ ३० ॥
पहिले निकल कर दृष्टि जिस किसी स्थान में संलीन (9) होती है वहां पर वह स्थिरता को पाकर शनै: शनैः (c) tवलीन (९) हो जाती है ॥ ३१ ॥ सर्वत्र प्रसृत (१०) होनेपर भी शनैः शनैः प्रत्यक्ष हुई दृष्टि उत्तम तत्व रूप निर्मात दर्पण में स्वयं ही श्रात्मा को देख लेती है ॥ ३२ ॥
उदासीनता (१९) में निमग्न, प्रयत्न से रहित तथा निरन्तर परमानन्द की भावनासे युक्त आत्मा कहीं भी मनको नियुक्त नहीं करता है ॥ ३३ ॥ मासे उपेक्षित (१२) चित्तपर इन्द्रियां भी कदाचित् अपना प्रभाव नहीं डाल सकती हैं, इसीलिये इन्द्रियां भी अपने २ ग्राह्य (१३) ( विषयों) में प्रवृत्त नहीं होती हैं ॥ ३४ ॥
१- स्वाद शुरू ॥ २-कोमल पदार्थो ॥ ३-उदासीनभाव ॥ -ग्रहण करनेयोग्य ५-मंद युक्त ॥ ६-चञ्चल ॥ ७-आसक्त, वद्ध, तत्पर, स्थित ॥ ८- धीरे धीरे ॥ ६-निमग्न ॥१०- पसरी हुई ॥ ११ - उदासीन भाव ॥१२- उपेक्षा से युक्त ॥ १३- ग्रहणकरने योग्य ॥
Aho! Shrutgyanam