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तृतीय परिच्छेद ॥
(१२६). अथवा गुरु चरणों की उपासना (१) करनेवाने, शान्ति युक्त तथा शुद्ध चित्त वाले पुरुष को इम संसार में ही गुरु की कृपा से तत्व का ज्ञान प्रकट हो जाता है ॥ १४ ॥
उसमें भी प्रथमतत्वज्ञानमें तो गुरु ही संवादक (२) हैं तथा वही अपर ज्ञानमें दर्शक (३) है; इसलिये सदा गुरु का ही सेवन करे ।। १५ ।।
जिस प्रकार गाढ़ (४) अन्धकार में निमग्न (५) पुरुषके लिये पदार्थों का प्रकाशक (६) सूर्य है उसी प्रकार इस संसार में अज्ञानान्धकार ( 9 ) में पड़े हुए पुरुष के लिये ( पदार्थप्रदर्शक ) गुरु है ॥ १६ ॥
इसलिये योगीपुरुष को उचित है कि प्राणायाम आदि क्लेशों का परि त्यागकर गुरु का उपदेश पाकर आत्मा के अभ्यास में रति (८) करे ॥ १७ ॥
शान्त होकर वचन मन और शरीर के क्षोभ (९) को यत्न के साथ छोड़ दे तथा रस के भाण्ड (१०) के समान अपने को नित्य निश्चल रक्खे ॥ १८ ॥ वृत्ति (११) को औदासीन्य (१२) में तत्पर कर किसी का चिन्तन न करे, क्योंकि संयुक्त (१३) चित्त स्थिरता (१४) को प्राप्त नहीं होता है ॥ १९ ॥
जहाँतक घोड़ासा भी प्रयत्न रहता है जहांतक कोई भी संकल्प (१५) की कल्पना (१६) रहती है तबतक लय ( ११ ) की भी प्राप्ति नहीं होती है तो फिर की प्राप्तिका तो क्या कहना है ॥ २१ ॥
“यह इसी प्रकारसे है" इस तत्व को गुरु भी साक्षात् नहीं कह सकता है वही तत्र औदासीन्य में तत्पर पुरुष को स्वयं ही प्रकाशित हो जाता है ॥ २१ ॥
एकान्त, पवित्र, रम्य (१८) देश (१९) में सदा सुख पूर्वक बैठकर चरणसे लेकर शिखा (२०) के प्रग्रभागतक सब अवयवोंको शिथिलकर मनोहर रूपको देखकर भी; सुन्दर तथा मनोज्ञ (२१) वाणीको सुनकर भी, सुगन्धित पदार्थों
१- सेवा ॥ २-प्रमाणरूप, सत्यताका निश्चय करानेवाला ॥ ३-दिखलानेवाला ॥ ४-घोर ॥ ५-डूबा हुआ ॥ ६-करनेवाला ॥ ७- अज्ञानरूप अन्धकार ॥ ८-प्रीति ॥ ६चाञ्चल्य ॥ १० - वर्त्तन ॥ ११-मनकी प्रवृत्ति ॥ १२- उदासीनभाव ॥ १३ संकल्पवाला || १४-स्थिर भाव ॥ १५- मनोवासना ॥ १६-विचार ॥ १७- एकाग्रता ॥ १८- रमणीक सुन्दर ॥ १६-स्थान ॥ २०-चोटी ॥ २१-मनको अच्छी लगनेवाली ॥
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