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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि॥ आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान का चिन्तन करने से अधचतु। प्रकार से ध्येय (१) के भेद से धर्मश्यान चार प्रकार, का कहा गया है. ७ ॥
जिस में सर्वज्ञों की अबाधित (२) श्राज्ञा को आगे करके तत्वपूर्वक प. दार्थों का चिन्तन किया जाता है उसे आज्ञाध्यान कहते हैं ॥ ॥
सर्वज्ञ का सक्ष्म वचन जो कि हेतुओं से प्रतिहत (३) नहीं होता है, उस को तदुरुप (४) में ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनेश्वर मृषा (५) भाषी नहीं होते हैं ॥॥
राग द्वेष और कषाय (६) आदि से उत्पन्न होने वाले अपायों (७) का जिस में विचार किया जाता है वह अपाय ध्यान कहलाता है ॥ १ ॥
इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अपायों के दूर करने में तत्पर होकर उम पाप कर्म से अत्यन्त निवृत्त हो जाना चाहिये ॥ ११ ॥ . जिस में प्रत्येक क्षण में उत्पन्न होने वाला, विचित्र सूप कर्मफल के उ. दय का विचार किया जाता है वह विपाक ध्यान कहा जाता है ॥ १२ ॥ . अहंद् भगवान् पर्यन्त की जो सम्पत्ति है तथा नारक पर्यन्त प्रात्माकी जो विपत्ति है, उस में पुगय और अपुण्य कर्म का ही प्राबल्य () है ॥ १३॥ - स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप, अनादि अनन्त लोक की आकृति का जिस में विचार किया जाता है उसे संस्थान ध्यान कहते हैं ॥१४॥
नाना द्रव्यों में स्थित अनन्त पर्यायों का परिवर्तन होने से उन में प्रासक्त (९) मन रागादि से आकुलत्त्व (१०) को नहीं प्राप्त होता है ॥ १५ ॥ . धर्मध्यान के होने पर क्षायोपशमिक (१९) प्रादिभाव होते है तया क्रम से विशुद्ध, पीत पद्म और सित लेश्यायें भी होती हैं ॥१६॥
अत्यन्त वैराग्य के संयोग से विलसित (१२) इस धर्मध्यान में प्राणियों को अतीन्द्रिय (१३) तथा स्वसंवेद्य (१४) सुख उत्पन्न होता है ॥ १७ ॥ ____सङ्ग को छोड़कर योगी लोग धर्मभ्यान से शरीर को छोड़ कर वेयक श्रादि स्वर्गों में उत्तम देव होते हैं, वहां वे अत्यन्त महिमा के सौभाग्य
. १-ध्यान करने योग्य वस्तु ॥२-बाधा रहित ॥ ३-बाधित ॥ ४-उसी रूप ॥ ५-मिथ्या बोलने वाले ॥ ६-क्रोधादि ॥ ७-हानियों ॥ ८-प्रबलता । -तत्पर ॥ १७व्याकुलता ॥ ११-क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला ॥ १२-शोभित ॥ १३-इन्द्रिय से भगम्य ॥ १४-अपने अनुभव से जानने योग्य ॥
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