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________________ मृतीय परिच्छेद। वीतराग का चिन्तन करने पर योगी वीतराग होकर विमुक्त होजाता है, किन्तु रागी का मालम्बन (१) कर क्षोभणादि (१) का कर्ता बनकर रागी हो जाता है ॥ १३ ॥ यन्त्र का जोड़ने याला जिस २ भाव से युक्त होता है उस के द्वारा वह विश्वरूप सणि के समान तन्मयत्व को प्राप्त हो जाता है ॥ १४ ॥ किञ्च-इस संसार में कौतुक से भी असत् (३) ध्यानों का सेवन नहीं करना चाहिये, क्योंकि असत् ध्यानों का सेवन करना स्वनाश के लिये होता है ॥ १५॥ मोक्ष का आश्रय लेने वाले पुरुषों को सब सिद्धियां स्वयं प्राप्त होजाती हैं, अन्य लोगों को सिद्धि का होना सन्दिग्ध (४) है, किन्तु स्वार्थ का नाश तो निश्चित है ॥ १६ ॥ क-अमूर्त, चिदानन्दरूप, (५) निरञ्जन, (६) सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान हैं उसे सूपवर्जित ध्यान कहते हैं ॥ १ ॥ इस प्रकार सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का अवलम्बन कर निरन्तर स्मरण करने वाला योगी ग्राह्य ग्राहक (७) से वर्जित (5) तन्मयत्वको प्राप्त होता है ॥२॥ अन्य के शरण से रहित होकर वह उस में इस प्रकार से लीन होजाता है कि जिस से ध्याता और ध्यान, इन दोनों का प्रभाव होने पर ध्येय के साथ एकरव () को प्राप्त हो जाता है ॥३॥ वह यही समरसीभाव (१०) उस का एको करण (१९) माना गया है कि जिस के अपथगभाव (१२) से यह आत्मा परमात्मा में लीन होजाता है ॥४॥ लक्ष्य के सम्बन्ध से अलक्ष्य का, स्थल से सूक्ष्म का तथा सालम्ब (१३) से निरालम्ब (१४) तत्त्व का तत्ववेत्ता (१५) पुरुष शीघ्र चिन्तन करे ॥५॥ इस प्रकार से चार प्रकार के ध्यानामृत में निमग्न मुनि का मन जग. तत्त्व का साक्षात्कार (१६) कर प्रात्मा की शुद्धि को करता है ॥६॥ क-अब यहां से आगे उक्त ग्रन्थ के दशवें प्रकाश का विषय लिखा जाता है। १-आश्रय ॥२ चित्त की अस्थिरता आदि ॥ ३-बुरे ॥ ४-सन्देह युक्त ॥५चित् और आनन्दरूप ॥६-निराकार ॥ ७-ग्रहण करने योग्य तथा ग्रहण करने वाला। -रहित -एकता ॥ १०-समान रस का होना॥११-एक कर देना ॥ १२-एफतो। १३-आश्रय सहित ॥ १४-आश्रय रहित ॥ १५-तत्त्वज्ञानी ॥१६-प्रत्यक्षा Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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