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तृतीय परिच्छेद । वाले, शरच्चन्द्र के समान कान्ति बाले, माला, भषण तथा वस्त्रों से भषित शरीर को प्राप्त होते हैं. तथा वे वहां विशिष्ट वीर्य और बोधसे यक्त, काम की बाधा और पीड़ा से रहित तथा विघ्न रहित अनुपम सुख का चिरकाल तक सेवन करते हैं, यहां वे इच्छा से सिद्ध होने वाले सब अर्थों से मनोहर सुख रूपी अमृत का निर्विघ्न भोग करते हुए गत जन्म को नहीं जानते हैं ॥ १८ ॥ २१ ॥
तदनन्तर दिव्य भोगों की समाप्ति होने पर स्वर्ग से च्युत होकर वे उ. सम शरीर के साथ पृथिवी पर जन्म लेते हैं, वे दिव्य वंश में उत्पन्न होकर नित्य उत्सवों से मनोरम अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं तथा उन के मनोरथ खण्डित नहीं होते हैं, तदनन्तर विवेक का प्राश्रय लेकर सब भोगों से विरक्त होकर तथा ध्यान से कर्मों का नाश कर अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥
क-वर्ग तथा अपवर्ग (१) के हेतु धर्म ध्यान को कह दिया, अब अपवर्ग के अद्वितीय (२) कारण शुक्ल ध्यान का कथन किया जाता है ॥१॥
इस ( शुक्ल ध्यान ) को आदिम संहनन वाले (३) पूर्ववेदी (४) पुरुष हौ कर सकते हैं, क्योंकि स्वल्पसरव (५) प्राणियोंका चित्त किसी प्रकारसे स्थिरता को नहीं प्राप्त होता है ॥२॥
विषयों से व्याकुल हुप्रो प्राणियों का मन ठीक रीति से स्वस्थता को धारण नहीं करता है, अतः अल्पसार (६) वाले प्राणियों का शुक्न ध्यान में अधिकार (७) नहीं है ॥३॥
यद्यपि अाधुनिक (८) प्राणियों के लिये शुक्ल ध्यान () दुष्कर है तथा पि प्रस्ताव (१०) के अभंग (१९) के कारण हम भी शास्त्र के अनुसार समागत [१२] आम्नाय (१३) का वर्णन करते हैं ॥ ४॥
क-अब यहां से आगे उक्त ग्रन्थके ग्यारहवें प्रकाश का विषय लिखा जाता है। १-मोक्ष ॥२-अनुपम ॥ ३-बज, ऋषभ और नाराच संहनन वाले ॥४-पूर्व के आनने 'वाले ॥ ५न्योड़े बलबाले ॥६-अल्पपल । ७-योग्यता, पात्रता ॥ ८-इस सयके.॥ -कठिन ॥ १०- क्रम ॥ १२-न टूटना ॥ १२-आये हुए ॥ १३-पारम्पर्ष ।
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