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________________ तृतीय परिच्छेद | ( ११३ ) पीछे बालके अग्रभाग के समान सूक्ष्म उसका ही ध्यान करे, पीछे क्षणभर ज्योतर्मय (९) जगत् को श्रव्यक्त स्वरूप (२) देखे ॥ २७ ॥ लक्ष्यसे मन को हटाकर तथा अलक्ष्य में मनको स्थिर करते हुए. योगी के अन्तःकरण में क्रमसे अप्रत्यक्ष (३) प्रक्षय ज्योति प्रकट हो जाती है ॥२८॥ इस प्रकार लक्ष्य का प्रलम्बन (४) कर लक्ष्यभाव को प्रकाशित किया, उसमें निश्चल मन वाले मुनि का प्रभीष्ट सिद्ध होता है ||२९|| तथा हृदयकमलके मध्यभागमें स्थित तथा शब्द ब्रह्म के एक कारण स्वर और व्यञ्जन से युक्त परमेष्ठी के वाचक (५) तथा मस्तक पर स्थित च न्द्रमा की कला के अमृत रस से आर्द्र (६) महामन्त्र रूप प्रणव (9) का कुम्भक के द्वारा परिचिन्तन करे ॥ ३० ॥ ३१ ॥ स्तम्भन में पीत, वश्यमें लाल, क्षोभण में विद्रुम के समान, विद्वेषण में कृष्ण तथा कर्मघातमें चन्द्र के समान उसका ध्यान करे ॥३२॥ तथा योगी पुरुष तीन जगत् को पवित्र करनेवाले तथा अति पवित्र पञ्चपरमेष्ठि नमस्कार रूप मन्त्र ( ८ ) की चिन्तन करे ॥ ३३ ॥ आठ पत्रवाले श्वेत कमल में कर्णिका में स्थित प्रथम पवित्र सप्ताक्षर मन्त्र (c) का चिन्तन करे || ३४ ॥ तथा दिशा के पत्रों में क्रम से सिद्ध आदि [१०] चारों का चिन्तन करे त था विदिशाओं के पत्रों में चूला के चारों पदोंका [११] चिन्तन करे ॥३५॥ मन वचन और शरीर की शुद्धि के द्वारा इसका एकसौ ब्राट बार चिन्तन करता हुआ मुनि भोजन करने पर भी चतुर्थ तपके फल को पा लेता है ॥ ३६ ॥ इस प्रकार इस संसार में इस ही महामन्त्र का श्राराधन कर परम लक्ष्मी को प्राप्त होकर योगी लोग त्रिलोकी के भी पूज्य हो जाते हैं ||३१|| १- प्रकाश मय प्रकाश स्वरूप ॥ २ अप्रकट रूप ||३- प्रत्यक्ष से रहित ॥ १- आश्रय ५- कहनेवाले ॥ ६-भीगे हुए ॥ ७- ओंकार ।। ८- नवकार मन्त्र ॥ ६-" नमोअरि हंताणं" इस मन्त्र का ।। १० - आदि पदसे आचार्य उपाध्याय और साधु का ग्रहा होता है ।। ११- 'एसो पंचणमुक्कारो, 'सव्वपावप्पणा-सणो, ' मंगलाणंच सव्वेसिं, 'पढमं हवाइ मंगलं, इन चार पदों का ॥ १५ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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