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( ११२ )
श्रीराजमन्त्रगुणकरूपमहोदधि ॥
ध्यान करे, पीछे उस ध्यान के प्रवेश (१) से "सोऽहम् " प्रकार वारंवार कहते हुए शङ्का रहित (२) आत्मा के साथ एकता को जाने, पीछे रागद्व ेष और मोइसे रहित, सर्वदर्शी, पूजनीय, (४) तथा समवसरण में देशना (५) देते हुए परमात्मा के आत्मा के साथ ध्यान करता हुआ ध्याता योगी पुरुष क्लेशों का नाश कर परमात्म भाव को प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ १७ ॥
भेदभावसे
" सोऽहम् " इस
परमात्मा की
(३) देवों से
अथवा बुद्धिमान् पुरुष ऊपर और नीचे रेफसे युक्त, कलाविन्दुके सहित, अनाहत (६) से यक्त, स्वर्ण कमल के गर्भ में स्थित, सान्द्र, (७) चन्द्र किरणों के समान निर्मल, गगन ८) में संचार (९) करते हुए तथा दिशाओंोंको व्यास करते हुए मन्त्रराज (१०) का स्मरण करे, पीछे मुख कमलमें प्रवेश करते हुए, भ्रूलता (११) के मध्य में भ्रमण करते हुए, नेत्र पत्रों में करते हुए, स्फुरणा भाल मण्डल (१२) में ठहरते हुए, ताल छिद्र से निकलते हुए, सुधारसको टपकाते हुए, चन्द्रमा के साथ स्पर्धा (१३) करते हुए, भीतर प्रकाश को स्फुरित (१४) करते हुए, नभोभाग में (१५) सचरण करते हुए, शिव लक्ष्मी से जोड़ते हुए तथा सर्व अवयवोंसे सम्पूर्ण ( उस मन्त्रराज का ) कुम्भक से चिन्तम करे ॥ १८-२२ ॥
अकारादि, हकारान्त, रेफमध्य विन्दुके सहित उस ही परम तत्वको (१६) जो जानता है वही तत्वज्ञानी है ॥ २३ ॥
जब ही योगी स्थिर होकर इस महातत्व का ध्यान करता है उसी स मयानन्द सम्पत्ति की भूमि मुक्ति रूप लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है ॥२४॥
पीछे रेफ विन्दु और कला से हीन शुभ्र अक्षर का ध्यान करे, पीछे म नक्षर भाव को प्राप्त हुए तथा अनुच्चार्य का चिन्तन करे ॥२५॥
चन्द्र कलाके समान श्राकार वाले, सूक्ष्म, सूर्यके समान तेजस्वी तथा चमकते हुए अनाहत नामक देव का चिन्तन करे ॥ २६ ॥
१- वेग ॥ २- शङ्का को छोड़कर ॥ ३-सबको देखनेवाले ॥। ४- पूजाके योग्य ॥ ५- उपदेश ।। ६- अनाहत नाद | ७- भीगे हुए ॥ ८- आकाश ।। ६-गमन ॥ १०- नवकार मन्त्र ।। ११- नौं । १२ - मस्तक मण्डल || १३ - ईर्ष्या ।। १४- प्रदीप्त ॥ १५- आकाश भाग ॥। १६ " अहं " रूप तत्र ॥
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