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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ।। प्रशान्त आत्मावाला हो जावे, इसका नाम वायवी धारणा है ॥११ ॥२०॥ - बरमते हुए अमृत की बौछारों के साथ मेघमाला से युक्त श्राकाशका स्मरण करे, तदनन्तर अर्धचन्द्र से आक्रान्त [२] तथा वारुण से अङ्कित मण्डल [२] का ध्यान करे, तदनन्तर उस मण्डल के समीप सुधारूप जलसे उस नभस्तल [३] को प्लावित [४] करे तथा एकत्रित हुई उस रजको धो डाले, इसका नाम वारुणी धारणा है ॥ २१॥ २२ ॥
तदनन्तर मात धातुओं के विना उत्पन्न हुए, पूर्ण चन्द्र के समान उ. ज्ज्वल कान्तिवाले तथा सर्वज्ञ के समान आत्मा का शुद्ध बुद्धि पुरुष ध्यान करे, तदनन्तर सिंहासन पर बैठे हुए, सर्व अतिशयों से प्रदीप्त, सर्व कर्मोके नाशक, कल्याणों के महत्व से यक्त तथा अपने अङ्ग गर्भ में निराकार प्रात्म. स्वरूपका ध्यान करे, इसका नाम तत्रभू धारण है, इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानमें अभ्यास यक्त होकर योगी मुक्तिसुख को प्राप्त कर सकता है । ॥ २३ ॥ २४ ॥२५॥ . इस प्रकार से पिण्डस्थ ध्यान में निरन्तर (अत्यन्त ) अभ्यास करने वाले योगी पुरुष का दुविधायें, मन्त्र और मण्डल की शक्तियां, शाकिनी, क्षुद्र योगिनी, पिशाच तथा मांसाहारी जीव कुछ भी नहीं कर सकते हैं। किन्तु ये सब उसके तेजको न सहकर उसी क्षण भीत हो जाते हैं, एवं दृष्ट हाथी, सिंह शरभ सर्प भी जिघांसु होकर भी स्तम्भित के समान होकर उससे दूर ही रहते हैं ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ ... (क) पवित्र पदों का पालम्बन (५) कर जो ध्यान किया जाता है उस ध्यान को सिद्धान्त पार गामी (६) जनोंने पदस्थ ध्यान कहा है ॥ १॥
नाभिकन्द (७) पर स्थित सोलह पत्र वाले कमलमें प्रत्येक पत्रपर भ्रमण करती हई स्वर माला (८) का परिचिन्तन करे तथा हृदय में चौबीस पत्र. वाले कर्णिका सहित कमल का परि चिन्तन करे, उस पर क्रम से पच्चीस
१-युक्त २-चिन्हवाले ॥ ३-आकाशतल ॥ ४-आद्र, गीला ॥ ___क-अब यहां से आगे उक्त ग्रन्थ के आठवें प्रकाश का विषय लिखा जाता है। ५-आश्रय ॥६-सिद्धान्त के पार पहुंचे हुए ॥ ७-नामिस्थल ॥ ८-स्वरसमूह ।।
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