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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ . इसलिये प्रशान्त (१) बुद्धिमान् पुरुष इन्द्रियों के साथ मन को खींचकर
धर्मध्यान के लिये मन को निश्चल करे ॥६॥ . नाभि, हृदय, नासिकाका अग्रभाग, मस्तक, भ्रू , (२)तालु, नेत्र, मुख, कर्ण (३) और शिर, ये ध्यान के स्थान कहे गये हैं ॥ ७ ॥
इन में से किसी एक स्थान में भी मन को स्थिर करने वाले पुरुष को प्रात्मज्ञान सम्बन्धी अनेक ज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं ॥८॥ . क-ध्यान करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को ध्याता, (४) ध्येय, (५)
और फल को जानना चाहिये, क्योंकि सामग्री के विना कार्यो की सिद्धि कदापि नहीं होती है ॥ १॥
जो ग्राणोंका नाश होने पर भी संयम में तत्परता (६) को नहीं छोडता है, अन्य को भी अपने समान देखता है, अपने स्वरूप से परिच्युत (७) नहीं होता है, शीत वात और भातप (८) आदि से उपताप (e) को नहीं प्राप्त होता है, मोक्षकारी (१०) योगामृत रसायन [१९] के पीने की इच्छा रखता है, रागादि से अनाक्रान्त [१२] तथा क्रोधादि से प्रदूषित [१३] मन को मात्माराम [१४] रूप करता है, सब कार्यों में निर्लेप [१५] रहता है, काम भोगों से विरत (१६) होकर अपने शरीर में भी स्पृहा [१७] नहीं रखता है, सर्वत्र समता [१८] का श्राश्रय [१९] लेकर संवेग [२०] रूपी हद [२१] में गोता लगाता है, नरेन्द्र [२२] अथवा दरिद्र के लिये समान कल्याणकी इच्छा रखता है, सब का करुणापात्र होकर संसारके सुख से पराङ मुख [२३] रहता है, सुमेरु के समान निष्कम्प, (२४) चन्द्रमा के समान प्रानन्द दायक तथा वायु के समान निःसङ्ग रहता है, वही बुद्धिमान् ध्याता प्रशंसनीय गिना जाता है ॥२-७॥
१-शान्ति से युक्त ।। २-भौंह ।। ३-कान । क-अब यहां से आगे उक्त ग्रन्थ के सातवें प्रकाश का विषय लिखा जाता है।
४-ध्यान करने वाला ॥५-ध्यान करनेके योग्य ॥६-तत्पर रहना, आसक्ति॥ -गिरा हुआ, पृथक् ॥ ८-धूप ॥ -दुःख ॥१०-मोक्षदायक ॥११-योगामृतरूपी र. सायन ॥ १२-न दबाया हुआ ॥ १३-दोष रहित ॥ १४-आत्मा में आनन्द पाने वाला ॥ १५-सङ रहित ॥ २६-हटा हुआ ॥ २७-इच्छा । १८-समभाव ॥ १६-सहारा ॥ २०संसार से भय ॥ २१-तालाब ॥ २२-राजा ॥ २३-मुंह फरे हुए ॥ २४-कम्परहित।
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