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तृतीय परिच्छेद ॥
( १०७ )
वेध करे, पतङ्ग और भृङ्गों के शरीरों में अभ्यास होजाने पर मृगों में भी बंध करे तथा वह धीर पुरुष अनन्य मानस (१) और जितेन्द्रिय (२) होकर सञ्चरण करे, तदनन्तर नर अश्व (३) और हस्ती (४) के शरीर में प्रवेश और निर्गम (५) कर क्रम से पुस्त (६) और उपल (9) में भी सङ्क्रमण
करे ।। २५२-२५८ ॥
इसी प्रकार मृत प्राणियों के शरीरों में वान नासिका के द्वारा प्रवेश करे परन्तु पाप की से जीवित प्राणियोंके शरीरों में प्रवेश करना नहीं कहा गया है || २६० ॥
शङ्का
इस प्रकार क्रम से पर शरीर में प्रवेश करने के अभ्यास की शक्ति से विमुक्त के समान निर्लेप (८) होकर बुद्धिमान् पुरुष अपनी इच्छा के अनुसार सञ्चरण (ल्) करे ॥ २६९ ॥
क- यह जो पर शरीर में प्रवेश करना है यह केवल आश्चर्य कारक है, अथच यह भी सम्भव है कि इस की सिद्धि प्रयत्न करने पर भी अधिक काल में भी न हो सके ॥ १ ॥
क्लेश के कारण भूत (१०) अनेक उपायोंसे पवन को जीत कर भी तथा शरीर में स्थित नाड़ी के प्रचारको स्वाधीन (१९) करके भी तथा श्रद्ध ेय (१२) पर शरीर में सङ्क्रम (१३) को सिद्ध करके भी केवल एक विज्ञान में शासक (१४) पुरुष को मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती है ॥ २ ॥ ३ ॥
प्राणायाम से कदर्शित (१५) मन स्वस्थताको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि प्राण के प्रायमन (१६) में पीड़ा होती है तथा पीड़ा के होने पर चित्त का विप्लव (११) हो जाता है ॥ ४ ॥
पूरण कुम्भन तथा रेचन में परिश्रम करना भी चित्त के क्लेशका कारण होने से मुक्ति के लिये विघ्नकारक है ॥ ५ ॥
१ - एकाग्र चित्त ॥ २ - इन्द्रियों को जीतने वाला ॥ ३-घोड़ा ॥ ४-हाथी ॥ ५-निकलना ॥ ६-पुतली ।। ७-पत्थर ॥ ८-दोष रहित ।। क- अब यहां से आगे उक्त
-गति, गमन ॥
ग्रन्थ के छठे प्रकाश का विषय लिखा जाता है ॥ १०- कारण स्वरूप ११-अपने आधीन ।। १२ - श्रद्धा (विश्वास) न करने योग्य
१३- गति क्रिया १४- तत्पर, दत्तचित्त ।। १५-व्याकुल, घबड़ाया हुआ ॥ १६ - रुकावट, निराध ।। १७- अस्थिरता ।।
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