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तृतीय परिच्छेद ॥
(६५) [किञ्च-पतञ्जस्ति ऋषि ने तो यह माना है कि-खड़े रहकर एक पेर को पृथिवी पर रक्खे रहना तथा दूसरे पैर को घुटने तक खींचकर ऊंचा र. खना, इस का नाम वीरासन है।
एक जङ घो के मध्यभाग में दूसरी जङघा का जिस में संश्लेष (१) होता है उसे प्रासन ज्ञाता (२) जनों ने पद्मासन कहा है ॥ १२ ॥
मुष्क (३) के अग्रभाग में पैरों के दोनों तलभागों को सम्पुट (४) करके उस के ऊपर हाथ की कच्छविका ५) करने से जो श्रासन होता है उसे भ. द्रासन कहते हैं ॥ १३ ॥
जिस में बैठ कर मिली हुई अड गुलियों को; मिले हुए गुल्फों (६) और पृथिवी से संश्लिष्ट (७) दोनों जङघाओं को तथा पैरों को पसारना पड़ता है उसे दण्डासन कहते हैं ॥ १३ ॥
पुत (८) तथा चरणतलों (ए) के संयोग करने को उत्कटिकासन कहते हैं तथा घरणतलोंसे पृथिवी का त्याग करने पर गोदोहिकासन होता है ॥९३२॥ ____दोनों भजों को लम्बा कर खड़े रह कर अथवा बैठे रहकर शरीर की अपेक्षा से रहित जो स्थिति है उसे कायोत्सर्ग (१०) कहते हैं (११) ॥ १३३ ॥
जिस २ प्रासन के करने से मन स्थिर रहेः उसी २ श्रासन को ध्यानकी सिद्धि के लिये करना चाहिये ॥ १३४ ॥
सुखकारी (१२) श्रासन से बैठ कर दोनों ओष्ठों को अच्छे प्रकार से मिलाकर; दोनों नेत्रों को नासिका के अग्रभाग पर डाल कर; ऊपर के तथा नीचले दांतों को न मिला कर; प्रसन्न मुख होकर; पूर्व की ओर तथा उत्तर की ओर मुख करके; प्रमादसे रहित होकर; शरीर के सन्निवेश (१३) को ठीक करके, ध्यानकर्ता पुरुष ध्यान के लिये उद्यत हो ॥ १३५ ॥ १३६ ॥
१-मेल संयोग ॥२-आसनों के जानने वाले ॥३-अण्डकोष ॥४-गड्ढा ॥ ५कमठी॥६-धुटिकाओं ॥ ७-मिली हई ॥ ८-कूले ॥ १-पैरों के तलवों ॥ १०-जिन कल्पिक लोग केवल खड़े २ ही कायोत्सर्ग करते हैं तथा स्थविर कल्पिक जम वैठे २ तथा सोते २ भी कायोत्सर्ग करते हैं ॥ ११-यहां पर केवल आवश्यक आसनों का वर्णन किया गया है । १२-सुखदायक ॥ १३-अवयव विभाग
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