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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि । दीन, (२) अर्त, (२) भीत (३, तथा जीवन की याचना करने वाले जीवों के विषय में जो उपाय की बुद्धि (४) है उसे कारुण्य कहते हैं ॥१२०॥ ___ र (१) कर्म करने वाले देव और गुरु की निन्दा करने वाले तथा अ. पनी नाचा (६) करने वाले जीवों में निःशङ्क होकर जो उपेक्षा (७) करना है उसे माध्यस्थ कहते हैं ॥ १२१ ॥
इन भावनाओं के द्वारा अपने को भावित (6) करता हुआ अतिबद्धिमान् पुरुष टूटी हुई भी विशुद्ध ध्यानकी सन्तति (१) को जोड़ सकता है ॥१२२॥ ___ योगी पुरुष को श्रासनों का जय (१०) करके ध्यान की सिद्धि के लिये तीर्थ (१९) स्थान अयवा स्वस्थता के कारणरूप किसी एकान्त स्थान (१२) का प्राश्रय लेना चाहिये ।। १२३ ॥
पर्यङ्कासन, वीरासन, वज्रासन, अब्जासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटि. कासन गोदोहिकासन तथा कार्योत्सर्ग, ये आसन हैं ॥ १२४ ॥ ___दोनों जवानों के अधोभाग को पैरों के ऊपर करने पर नाषिपर्यन्त द. क्षिण (१३) तथा वाम .१४) हाथको ऊपर रखनेसे पर्यङ्कासन होता है ॥ १२५ ॥
जिस श्रासन में वाम पैर दक्षिण जङ्घा पर तथा दक्षिण पैर वाम जडघा पर रक्खा जाता है उसे वीरासन कहते हैं, यह श्रासन वीरों के लिये उचित है ॥ १२६ ॥
पर लिखे अनुसार वीरासन कर लेने पर पृष्ठ भाग (१५) में वन के समान आकृति (१६) वाले दोनों बाहुओं से जिस आसन में दोनों पैरों के अङ गुष्ठों (१७) का ग्रहण किया जाता है उसे बजासन कहते हैं ॥ १२७ ॥ पृथिवी पर पैर को रखकर तया सिंहासन पर बैठ कर तथा उस प्रासन का अपनयन (१८) होने पर जो वैसी ही अवस्थिति (१९) है उस को कोई लोग वीरासन कहते हैं ॥ १२८ ॥
१-धनहीन ॥ २-दुःखित ॥ ३-डरा हुआ ॥ ४-"इन का उक्त दुःखों से निस्तार होने का यह उपाय है” इस का विचार करना ॥ ५-कठोर ॥६-प्रशंसा ॥ ७-मनकी अप्रवृत्ति ॥ ८-संस्कृत, संस्कार युक्त, वासित ॥ ६-परम्परा ॥ १०-अभ्यास ॥ ११-तीर्थङ्करों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथामोक्ष होने का स्थान ॥ १२-पर्वत गुफा आदि स्थान॥ १३-इहिने ॥१४-त्रायें ॥ १५-पिछले भाग ॥ १६-आकार, स्वरूप, १७-अंगूठों॥ १८-खिसकना, हटजाना ॥ १६-स्थिति, अवस्था, अवस्थान, बैठक ॥
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