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अथ तृतीय परिच्छेदः । श्रीहेमचन्द्राचार्य जी महाराज प्रणीत योगशास्त्र नामक सद्ग्रन्थ से उद्धृत मन्त्रराज के विषय में उपयोगी विभिन्न
विषयों का सङ्ग्रह *।
छद्मस्थ योगियोंका मनः स्थिरतारूप (१) ध्यान एक मुहूर्त तक रहता है, वह ( ध्यान ) दो प्रकार का है-धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान, योगी केवलियों का योग ( मन वचन और काय) का निरोध रूप ही ध्यान होता है (२) ॥ ११५ ॥
अथवा मुहूर्त काल के पश्चात् भी चिन्तनरूप ध्यानान्तर (३) हो सकता है तथा बहुत अर्थों का सङक्रम (४) होने पर दीर्घ (५) भी ध्यान की परम्परा हो सकती है ॥ ११६ ॥
धर्मध्यान के उपकार के लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ को भी जोड़ना चाहिये; क्योंकि वे [ प्रमोद श्रादि] उस (ध्यान) के रसायन [पुष्टिकारक ] हैं ॥ ११७ ॥
कोई प्राणी पापों को न करे तथा कोई प्राणी दुःखित न हो; यह ज. गत् भी मुक्ति को प्राप्त हो, इस प्रकार की बुद्धि का नाम मैत्री है ॥ ११८ ॥ ___सब दोषों का नाश करने वाले तथा, वस्तुतत्त्व (६) को देखने वाले मुनियों ] के गुणों में जो पक्षपात (७) है वह प्रमोद कहा गया है ॥१९॥
* यह संग्रह उक्त ग्रन्थ के चतुर्थ प्रकाश के ११५ वें श्लोक ले लेकर किया गया है तथा मूल श्लोकों को ग्रन्थ के विस्तार के भयसे न लिख कर केवल श्लोक का अर्थ ही लिखा गया है तथा अर्थ के अन्त में श्लोक संख्या का अङ्क लिख दिया गया है।
१-मन का स्थिर होना रूप ॥२-तात्पर्य यह है कि अयोगी केवली कुछ कम पूर्व कोटि तक मन वचन और काय के व्यापार के साथ विहार करते हैं तथा मोक्ष समयमें उक्त व्यापारका निरोध करते हैं ॥ ३-दूसरा ध्यान ॥४-मिश्रण, मिलावट ॥ ५-लम्बी, बड़ी ॥६-वस्तुके यथार्थ खरूप ॥ ७-तरफदारी, श्रद्धा, विश्वास, प्रवृत्ति ।।
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