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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥
क- इसलिये किन्हीं लोगों ने (१) ध्यान की सिद्धि के लिये प्राणायाम को माना है; क्योंकि उसके विना मन और पवनका जय नहीं होसकता है ॥१॥
जहां मन है वहां पवन है तथा जहां पवन है वहां मन है; इस लिये समान (२) क्रिया वाले ये दोनों क्षीर और नौर के समान संयुक्त हैं ॥ २॥
एक का नाश होने पर दूसरे का भी नाश हो जाता है तथा एक की स्थिति होने पर दूसरे की भी स्थिति होती है, उन दोनों का नाश होने पर इन्द्रिय तथा बुद्धि का भी नाश हो जाता है तथा उम से मोक्ष होता है ॥३॥
श्वास और प्रश्वास की गति के रोकने को प्राणायाम कहते हैं; वह प्राणायाम तीन प्रकार का है - रेचक, पूरक और कुम्भक ॥ ४ ॥
कोई आचार्य प्रत्याहार, शान्त, उत्तर तथा अधर, इन चार भेदों को उक्त तीनों भेदों में मिलाकर प्राणायाम को सात प्रकार का कहते हैं ॥ ५ ॥ कोष्ठ (४) में से अति यत्न पूर्वक नासिका, ब्रह्मपुर तथा मुख के द्वारह वायु का बाहर फेंकना है; उसे रेचक कहते हैं ॥ ६ ॥
जो
वायु का आकर्षण कर (५) अपान द्वार (६) पर्यन्त जो उस को पूर्ण करता है उसे पूरक कहते हैं तथा नाभिकमल में स्थिर करके जो उसे रोकना है उसे कुम्भक कहते हैं ॥ 9 ॥
एक स्थान से खींचकर जो वायु का दूसरे स्थान में ले जाना है उसे प्रत्याहार कहते हैं तथा तालु, नासिका और मुखद्वार से जो उसे रोकना है उस का नाम शान्त है ॥ ८ ॥
बा (9) पवन को पीकर तथा उसे ऊर्ध्व भाग (८) में खींचकर हृदय आदि स्थानों में जो उस का धारण करना है उसे उत्तर (९) कहते हैं तथा
क- अब यहां से उक्त ग्रन्थ के पांचवें प्रकाश का श्लोकार्थ लिखा जाता है, श्लोकार्थ के अन्त में पूर्वानुसार श्लोकसंख्या का अङ्क लिख दिया गया है ॥
१- पतञ्जलि आदि ने ॥ २-एक ॥। ३-रेचक पूरक तथा कुम्भक में ॥ ४-कोठे ॥ ५-खींचकर ॥ ६-गुद द्वार ॥ ७ - बाहरी ॥ ८- ऊपर के भाग में ॥ ६-उत्तर अर्थात् नीचे भाग से ऊपरी भाग में ले जाना ॥
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