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द्वितीय परिच्छेद ॥ _ec-"र" नाम तीक्ष्ण का कहा गया है, अतः "र" अर्थात् उष्ण, अर्थात् ग्रीष्म ऋतु है वह कैसा है कि ह” अर्थात् जल को अन्त को पहुंचाता है, अतः वह "हन्तान” है, तात्पर्य यह है कि ग्रीष्म में जलका शोष (१) हो जाता है, ("मोदयति” इस व्युत्पत्ति के करने पर मोद” शब्द बनता है) ग्रीष्म ऐसा नहीं है, अर्थात् प्रायः परितापकारी (२) होने से वह मोदकृत् (३) नहीं होता है ॥ ____ee-"उ अर” ऐसे पद हैं इनका यह अर्थ है कि-ऋत्वर, (रह धातुत्याग अर्थ में है ) "रह्यते” अर्थात् त्याग किया जाता है, ( यहां पर भाव अर्थ में उ प्रत्यय करने पर "र" शब्द बन जाता है) र नाम निन्द्य ४) का है, जो "र" नहीं है उसे “पर” कहते हैं, अर्थात् “पर” नाम उत्तम का है, ऋतुओं में जो "अर" अर्थात् उत्तम है उसे ऋत्वर कहते हैं, तात्पर्य यह है कि कि जो सब ऋतुओं में प्रधानहै उसका नाम ऋत्वर है, यह कौन सा है-यह बात विशेषण के द्वारा कही जाती है कि-" हतानः" "ह" अर्थात जलको जो "तानयति” अर्थात विस्तृत करता है उसका नाम "हतान", है अतः हतान नाम वर्षा ऋतु का है, वह कैसा है कि-"नम” है, “नमति” अर्थात् ग्रही करता है अर्थात सब जनों को उद्यमी [५] करता है, [णिक प्रत्यय का अर्थ अन्तर्गत [६] होने से नम् शब्द का अर्थ यह है कि वह सबको व्यापार में प्रवृत्त करने वाला है ] ॥
१०.-"अरहंत” “आप” नाम जलका है, [रह धातु त्याग अर्थ में है] उस जलको "रहन्ति” अर्थात् त्याग करते हैं अर्थात् छोड़ते हैं,अतः "अरह" नाम मेघ का है, उस (मेघ) का जिससे "अन्त" अर्थात विनाश होता है उसे "अरहान्त” कहते हैं, अर्थात् घनात्यय [७] शरद् ऋतुका नाम अरहान्त है, इस लिये हे अरहान्त अर्थात् हे शरद् ऋतु तू [न शब्द निषेध अर्थ में है, "नम” यह क्रिया पद है ] "मा नम” अर्थात् कृश मत हो, शर ऋतु अति रमणीय [८] होता है; अतः [C] ऐसा कहा गया है ॥
१०१--अब नवग्रहों का वर्णन किया जाता है, उन में से र्य और
१-सूखना ॥ २-दुःख की करने वाला ॥ ३-आनन्दको करने वाला ॥ ४-निन्दा के योग्य ॥५-उद्यमवाला ॥ ६-अन्तर्भूत, भीतर रहा हुआ ॥ ७-धन का नाशक । ८-सुन्दर ॥ -इसलिये ॥
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