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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि । चन्द्र पूर्व हैं, उनमें भो सिद्धान्त वेदी [१] चन्द्रको प्रथम मानते हैं, "र" नाम तीक्ष्णा का कहा गया है, अतः "र" शब्द तीक्ष्ण का वाचक [२] है, जो 'र” नहीं है उसे “पर” कहते हैं, अर्थात पर नाम शीतका है, “अरा" अर्थात् शीत "भा” अर्यात् कान्ति [३] जिसकी है उसका नाम "अरभ” है, अर्थात् “अरम” नाम शीतगु [४] का है, उस को नमस्कार हो, वह चन्द्र *सा है कि "त्राण” है, अर्थात् सघ नक्षत्र ग्रह और तारों का शरणभूत [५] नर्यात् नायक [६] है ॥
१०२–अध सूर्य का वर्णन किया जाता है-जिस की “स” अर्थात् ती दण "भा” अर्थात् कान्ति है उसे "रभ” कहते हैं, अर्थात् “रभ” नाम सूर्य का है, "रभ” अर्थात् सूर्य को नमस्कार हो, ("व्यत्ययोऽप्यासाम्” इन विभक्तियों का व्यत्यय भी होता है, इस कथन से चतुर्थी के अर्थ में द्वितीया होगई, व शब्द पूर्वोक्त [७] अर्थ के समुच्चय [=] अर्थ में है ) वह "रभ" कैसा है कि “तान” है, तकार नाम एकाक्षर कोश में तस्कर [९] और युद्ध का कहा गया है, अतः यहां पर "त" नाम चौरका है, उन ( चौरों ) का जिस से अच्छे प्रकार “न” अर्थात् वन्धन होता है, उसे “तान” कहते हैं, उस तान ( सूर्य ) को नमस्कार हो, सूर्य का उदय होने पर चौरों का वन्धन होता ही है ॥ __ १०३-अब भौम [१०] का वर्णन किया जाता है-हे श्रर ! अर कैसा है कि-"मान" है, जिस में प्राकार का “न” अर्थात् वन्ध [१९] होता है, इस कथन से "शार” नाम कुज [१२] का है, वह कैसा है कि-"इन्त" है, जिससे "ह" अर्थात् जल का अन्त होता है उसे "हान्त कहते हैं, वह इस प्रकार का नहीं है अर्थात् जलदाता है, वह कैसा होकर जलदाता है कि-"मौः" "म" नाम चन्द्रः [१३] विधि [१४] और शिव का कहा गया है, अतः [१५] यहां पर "म" नाम चन्द्र का है, उस को जो "प्रवति” अर्थात प्राप्त होता है, उस को "मौः” कहते हैं, ( क्विा प्रत्यय के करने पर "मौ” शब्द बनता है) ता. त्पर्य यह है कि चन्दसे युक्त भौम [१६] वर्षाकाल में वृष्टिदाता [१७] होता है।
१-सिद्धान्त के जानने वाले ॥२-बतलाने वाला ३-प्रकाश ॥ ४-चन्द्रमा । ५-आश्रयदाता ॥६-प्रधान मुख्य ॥ ७-पहिले कहे हुए ॥ ८-जोड़. योग ॥ १-चोर ।। १०-मङ्गल ॥ ११-जोड़ ॥ १२-मङ्गल ॥ १३-चन्द्रमा ॥ १४-ब्रह्मा ॥ १५-इसलिये ।। १६-मङ्गल ॥ १७-वृष्टि का देने ( करने ) वाला ॥
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