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श्री मन्त्रराज गुण कल्पमहोदधि ॥
अर्थात् कृश दिनको "अ" अर्थात् प्राप्त हो, गाम् शब्द अर्थ में है, हेमन्त में दिनकी (१) लघुता होती है यह प्रसिद्धि है |
अलंकार
९६ – ' र” नाम तीक्ष्ण का कहा गया है, इसलिये "र अर्थात् तीक्ष्ण अर्थात् उष्ण, जो “र” नहीं है उसे "घर" कहते हैं अर्थात् ' अर" नाम "अतीक्ष्ण (२) का है, तथा "वर" शब्द से शिशिर ऋतु को जानना चाहिये, उस "र" अर्थात् शिशिर ऋतु (अपभ्रंश में इकार होता है, “व्यत्ययोऽप्यासाम्” इस सूत्र से व्यत्यय भी हो जाता है ) "ह" नाम जल का है, उससे "तन्यते” अर्थात् विस्तार को प्राप्त होते हैं, उनको “हतान” कहते हैं, अर्थात् "ह तान” जलरुह (पद्म) को कहते हैं, उनका " नम” अर्थात् नमन अर्थात् "कृशता [३] होती है, यह बात प्रसिद्ध है कि शिशिर ऋतु में कमल हिमसे सूख जाते हैं ॥
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९७ - हकार जिसके अन्त में है उसे "हान्त" कहते हैं, हान्त शब्द से सकार को जानना चाहिये, उससे जो “प्रसति” शोभा देता है, उसे "हान्ताकहते हैं, इस प्रकार का "रम्” अर्थात् शब्द है, फिर वह कैमा है कि अ” अर्थात् उकारसे "प्रबति” शोभा देता है, ( उ अष् इस स्थिति में "अन्त्य व्यञ्जनस्य" इस सूत्र से षकार का लोप हो जाता है ) “उरह” इस शब्द को सकार [४] युक्त कर दिया जाता है, तब “सुरह " ऐसा शब्द हो जाता है, इसका क्या अर्थ है कि "सुरभि” नाम वसन्त ऋतु का है, उसका जो पुरुष कथन करता है; अथवा उसकी स्तुति वा इच्छा करता है उसे सुरभ कहते हैं, ( णिज् प्रत्यय करने पर तथा उसका (५) लोप करने पर रूप मिट्ट हो जाता है, क्किप् का भी लोप हो जाता है, “उ, रह” यहां पर अन्त्य (६) व्यञ्जन का लोप होता है ) सुरम् शब्द से वमन्त की स्तुति करने वाले पुरुष का ग्रहण होता है, ण शब्द प्रकट तथा निष्फल अर्थ का वाचक कहा गया है, इसलिये "तम्” अर्थात् प्रकटता के साथ "नम" होता है, ("नमति" इस व्युत्पत्ति के करने पर "नम्” शब्द बनता है ) नम् पङ्कीभाव को कहते हैं अर्थात् सब कार्यों में उद्यत ॥
श्र,
१-छोटाई, छोटापन ॥२- कोमल मृदु ॥ ३- दुर्बलता, कमी ॥४-लकारके सहित ॥ ५- णिज् प्रत्यय का ॥ ६ - आखिरी ॥
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