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श्रीमन्त्रराजगुण कल्पमहोदधि ॥
रत्नाकर होनेसे सेवकों को समृद्धि प्राप्त करता है, ( विच् प्रत्यय के परे " खानन्" शब्द बन जाता है )।
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९० - अब विमान का वर्णन किया जाता है- अन्त शब्द से निशान्त का ग्रहण होता है, क्योंकि पदके एकदेश में समुदायका व्यवहार होता है निशान्त नाम गृह का है, एकाक्षरकोष में "र" नाम - काम तीक्ष्ण, वैश्वामर, (९) तथा नर का कहा गया है, इस लिये यहां पर " र" शब्द से मर का ग्रहण होता है, जो "र" नहीं है उसे अर कहते हैं, 'अर" नामदेव का है, घर अर्थात् देवों को "हन्ति” अर्थात् गमन करता है, अर्थात् देवाश्रित (२) होनेके कारण प्राप्त होता है, अतः वह "अरह" है, इस प्रकार का जो “अन्त” अर्थात् निशान्त (३) है, उसे " अरहन्त” कहते हैं, तात्पर्य यह है कि अरहन्त नाम अमर विमान (४) का है, ( उसका सम्बुद्धि (५) में हे "अरहन्त" ऐसा पद बनता है ) तू "ऋण" अर्थात् दुःख को " नामय” अर्थात् दूर कर ( नम इस पद में सिक् प्रत्यय का अर्थ - न्तर्गत जानना चाहिये, श्री शब्द हे शब्द के अर्थ में है ) ॥
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९९ – “म” नम-चन्द्रमा, विधि, तथा शिव का कहा गया है, इसलिये यहां पर “म” नाम चन्द्र का है, उस (म) से जो “ऊत” अर्थात् कान्त है, उसे "मोत" कहते हैं, अर्थात् मोत" नाम चन्द्रकान्त (६) का है, (कान्ति अर्थ वाले अव धातु क्त प्रत्यय के करने पर ऊत शब्द बनता है और वह कान्त का वाचक है ) " र " नाम अग्नि का है, उसके तुल्य, तथा “अहन्” नाम दिनका है) अहः करोति” इस व्युत्पत्ति के करने पर णिज् तथा क्विप् प्रत्यय होने पर “ अह” शब्द बनता है और वह सूर्य का नाम है ) उसके समान जिसका अन्त अर्थात् स्वरूप है, अर्थात् सूर्यकान्त (9), इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि - चन्द्रकान्त तथा वह्नि वर्ण (८) सूर्य कान्त प्रादि रत्न, उपलक्षण (९) होने से अन्य भी रत्नों का ग्रहण कर लेना चाहिये, उनका गण अर्थात् समूह है, ( क ग च ज इत्यादि सूत्र से गकार का लोप हो जाता है, "पदयोः सन्धिर्वा ” इस सूत्र से सन्धि हो जाती है - जैसे चक्काप्रो चक्रवाकः,”
१- अग्नि ॥ २ देवाधीन ॥ ३-गृह ॥ ४- देवविमान ५-सम्बोधन का एक वचन ॥ ६- एकप्रकार की मणि ॥ ७-एक प्रकार की मणि ॥ ८-अग्नि के समान वर्ण वाली ॥ ६- सुचनमात्र ॥
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