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द्वितीय परिच्छेद ॥
(७७) वन्दी को मोक्ष कर्ता (१) है, वह कैसा है कि "अरहन्ता" है "र" नाम नर का है, जो र नहीं है उसे पर अर्थात् अमर्त्य [२] कहते हैं, अर्थात भर नाम देवका है, अर अर्थात् देवों को जो भंग (३) करता है उसको अरभन् कहते हैं अरभन् नाम दैत्य का है, उन ( दैत्यों ) से जो “तायते” अर्थात रक्षा करता है, ( तायड् धातु सन्तान और पालन अर्थ में है ) ( "तायते" इस व्यत्पत्ति के करने पर ता: ऐसा रूप बनता है “क्विपियवी:रिवय” इस सूत्र से यकार का लोप होनेपर “अरहन्ता” ऐसा पद बन जाता है) इस लिये यह अर्थ है कि वन्दि मोक्ष कर्ता (४) मन्त्र मणि आदि पदार्थ दैत्य भय निवारक (५) होता है, णम् शब्द पूरण अर्थ में है।
90-न शब्द से ज्ञान का ग्रहण होता है तथा वह पांच प्रकार का है, इसलिये "नम्" अर्थात् पांच संख्या से “म” अर्थात ज्ञान जिसके है उसे नम कहते हैं अर्थात “नम्” शब्द से पञ्चम ज्ञानवान् (६) केवली का ग्रहण होता है, ( मानक धातु मान और शब्द अर्थ में है उससे "मीयते” ऐसी व्युत्पत्ति के करने पर “म” शब्द बनता है और वह ज्ञान का वाचक है बाहुलक से भाव में ड प्रत्यय करने पर म शब्द सिद्ध होता होता है ) वह केवली कैसा है कि-अरहन्” है, अर अर्थात देवों को जो "हन्ति” अर्थात प्राप्त होता है, इसलिये उसे अरहन कहते हैं, तात्पर्य यह है कि वह देवसेव्य (७) है, तथा त्राण अर्थात् षटकाय (८) का रक्षक [] भी है।
११-"" अर्थात प्रकार को जो "रियन्ति” अर्थात प्राप्त होते है ( इस व्यत्पत्ति के करने पर ड प्रत्यय आने पर "अरा” ऐमा पद बनता है, रित धातु गति अर्थ में है) इसलिये पर अर्थात जो प्रकार प्रापक (१०) है, हकार जिनके अन्त में हैं, उन्हें हान्त कहते हैं, तात्पर्य यह है कि प्रकार से लेकर हकार पर्यन्त वर्ण (११) हैं, "नमौः” न ज्ञान को कहते हैं, तथा मा नाम शब्द का है, (माडक् धातु मान और शब्द अर्थ में है ) उन दोनों
१- छुड़ानेवाला ॥ २-देव ॥ ३-नष्ट ॥ ४-बन्दी को छुड़ानेवाला । ५दैत्य के भय को हटानेवाला ॥ ६- पांचवें ( केवल ज्ञान से युक्त ॥ ७-देवों से सेवा करने योग्य ॥ -पृथियी आदि छः काय ॥ -रक्षा करनेवाला ॥ १०-पहुंचानेवाला ॥ ११-अक्षर।
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