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श्रीमन्त्रराजगुणकल्प महोदधि ॥
का "श्री" अर्थात् अवगमन (२) होता है, ( प्रव धातु प्रवगमन अर्थ में भी है, "प्रत्रनम्” इस व्युत्पत्ति के करने पर "श्री" शब्द बन जाता है इस 'में भाव अर्थ में क्विप् प्रत्यय होता है । " अरहंताणम्" इस पदमें चतुर्थी विभक्ति जाननी चाहिये, तात्पर्य यह है कि वर्णों से ज्ञान तथा शब्दोंका भी बोध[२] होता है ॥
१२- जैन मुनि भाषा के द्वारा त्राण शब्द से बड़ी पूपिका (३) का कथन होता है, जो कि संसार में मण्डक नाम से प्रसिद्ध है, वे साधुओं के त्राणक हैं, त्राणों का जो समूह है उसे त्राण कहते हैं, ( समूह अर्थ में अण् प्रत्यय हो जाता है ), वह त्राण कैसा है कि- "नम” अर्थात् नमतू उदर हो जाता है जिस से उसे नमोदरा कहते हैं, अर्थात बुभुक्षा (४) का नाम नमोदरा है उसको नष्ट करने वाला है, ( क्विप् प्रत्यय करने पर रूप सिद्ध होता है, तथा स्वराणां स्वरः इस सूत्र से अकार आदेश हो जाता है ||
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१३ – अनेकार्थ संग्रह में "मूक" शब्द दैत्य तथा वाग्दीन (५) छार्थ में कहा गया है, सूकों का जो समूह है उसे मौक कहते हैं, ( “षष्ठ्याः समूहे" इस सूत्र से अण् प्रत्यय हो जाता है, रह धातु त्याग अर्थ में है ) मौका जो त्याग करता है उसे मौकरह कहते हैं, वह नहीं है, कौन कि- "ता " अर्थात् लक्ष्मी को जो लाता है उसको तान कहते हैं, अर्थात् धन का उपार्जन [६] करने वाला, वह दोन समूह का वर्जक [9] नहीं होता है, तात्पर्य यह है कि वह दीन समूहको प्रसन्न करता है, अतः दोन जन उसकी सेवा करते हैं ।।
१४- एकाक्षर कोष में "ण" अक्षर प्रकट, निश्चल, प्रस्तुत, ज्ञान और वन्ध अर्थ का वाचक कहा गया है, इस लिये " " नाम बन्ध का है, और वन्ध शब्द से यहां कर्म वन्ध का ग्रहण होता है, उस का 64 रहन" अर्थात् त्याग करनेवाले पुरुष “नमोग” होते हैं, “ नमः” अर्थात् नमस्कार को जाते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं, इसलिये वे “नभोग" हैं, तात्पर्य यह है कि वे नमस्कार करने योग्य होते हैं ॥
१-ज्ञान ॥ २-ज्ञान ॥ ३- पूड़ी ॥ ४- भूख ॥ ५- वाग् अर्थात् वाणी ( बोलने की शक्ति ) से दीन ( दुःखी रहित ) ॥ ६ - संग्रह ॥ ७- त्याग करनेवाला ||
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