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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ ५५-“ण” अर्थात् ज ( पण्डित पुरुष ) को तुम "प्रत” अर्थात् जानो [श्रत धातु सातत्यगमन [१] अर्थ में है तथा गत्यर्थक [२] धातु ज्ञाना र्थक [३] होते हैं ] वह पण्डित पुरुष कैसा है कि “नमोह” है, अर्थात् नमस्कार के योग्य है॥
५६-“अरि हन्ताणम्” "अर्हन्” नामतीर्थङ्कर का है, उसका जो "ऋण” अर्थात कर्म है अर्थात तीर्थकर नाम कर्म है, वह कैसा है कि "नमो" "न" अर्थात् ज्ञान तथा “म” अर्थात् शिव, इन दोनों की जिससे “क” अर्थात प्राप्ति होती है. तात्पर्य यह है कि जिस कर्म का उदय होने पर परम (४) ज्ञान तथा मोक्षकी प्राप्ति होती ही है ॥ ____५७-"नमोत्तरी” “नमा” अर्थात् नमती हुई तथा "अत" अर्थात् ऊपर को जाती हुई; इस प्रकार की “तरी" अर्थात नौका है, वह कैसी है कि "हान्ता" है, "ह" जलको कहते हैं, उसका "अन्त” अर्थात् प्रान्त (५) जिसके हो; ऐसी नहीं है, तात्पर्य यह है कि वह जल के प्रान्त में नहीं जा सकती है।
५८-"ना" नाम पुरुष का है, उसका "म" अर्थात् मस्तक है, वह कैसा है कि "हतान" है, "ह"नाम शूनी (६ कर [७] और नरि(८,का कहा गयाहै, इस लिये "ह" शब्द से ईश्वर को जानना चाहिये उसकी "ता” अर्थात् शोभा, उस (शोभा) को "मानयति” अर्थात् बढ़ाता है, “अरि” शब्द सम्बोधन अर्थ में है।
५८-"अज” अर्थात् विष्ण को "नम, अर्थात् नमस्कार करो, वह विष्ण कैसा है कि "हतान है-नष्ट किया है "अन” अर्थात् शकट (दैत्य) को जिसने, ( इजेराः पाद पूरणे” इस सूत्र से इकार के सहित रेफ पाद पूरण अर्थ में है)।
६०-"अज” नाम रघुके पुत्रका है, वह 'अरिहन्ता” प्रथात् सब वैरियों का नाशक था, [C] "णम्” शब्द अलङ्कार अर्थ में है, "मा" और "न,” ये दो निषेध प्रकृत (१०) अर्थ को बतलाते हैं।
१- निरन्तर गमन ॥२-गति अर्थ वाले ॥ ३-ज्ञान अर्थवाले ॥४-उत्कृष्ट, उत्तम ॥ -किनारा, समाप्ति ॥६-महादेव ॥ -हाथ किरण ॥ ८-जल ॥ ६-नाश करने घाला ॥१०-प्रस्तुत, विद्यमान
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