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द्वितीय परिच्छेद। अर्थात् शाल्मली के पास तुम " न प्रत" अर्थात् मत जाओ, (अत धातु सातत्यगमम (१) अर्थ में है ) क्योंकि "अलिह” है-"अलि” अर्थात् भ्रमरों का "हन्” अर्थात् गमन "णम्” अर्थात् निष्फल है, ( हनक धातु हिंसा और गति अर्थ में है; उससे विच प्रत्यय करने पर "हन्” ऐसा रूप बनता है ) सुरभि (२) से रहित होनेके कारण भ्रमरों का भ्रमण निष्फल है, इस लिये तुम मत जाओ, यह मित्र का कथन है ॥
४७-नमो॥ अरियों से “हत” अर्थात् आठ प्रकार के कर्म से पीड़ितों को नमस्कार हो, यह उपहास नमस्कार (३) है ।
४८-"अरिहम्” अर्थात् “अर्हन्” अर्थात् जो जिन है; उसका "त्राण' अर्थात् शरणं [४] "न मोचम्” अर्थात् नहीं छोड़ना चाहिये।
४-"महन्” अर्थात् तीर्थङ्कर; उसका "त्राण” अर्थात् शरण नहीं छोड़ना चाहिये ॥
५०-'अरि” अर्थात आठ प्रकार के कर्म का जिन्होंने हनन [५] किया है उनको "अरिह” अर्थात् सिद्ध कहते हैं, उन (सिद्धों) के शरण को नहीं छोड़ना चाहिये।
५१-"मोदारि” नाम शोकका है, उससे "हत” अर्थात् पीड़ितों को "म" नहीं होता है अर्थात् शिव (६) नहीं हो सकता है ॥ ___५२-अरि हतों अर्थात् बाहरी वैरियों से पीड़ितों को "मोद” अर्थात् हर्ष नहीं होता है।
५३-"अरि” यह अव्यय सम्बोधन में है, "हत” अर्थात् निन्दयों (७) को नमस्कार हो, यह उपहास है ॥
५४-"अग” नाम पर्वत का है, उनका "अरि” अर्थात् इन्द्र, उसका "ह अर्थात् निवास ( स्वर्ग ), उसका "अन्त” अर्थात् स्वरूप (अन्त शब्द स्वरूप और निकट वाचक कहा गया है) उसको "अणति" अर्थात कहता है, उस प्रज्ञापता (८) आदि सिद्धान्त के जाननेवाले पुरुष को नमस्कार हो अर्थात् मैं उस को प्रणाम करता हूं, ( अवर्ण की यकार रूप में अति (e) होती है, इस लिये यकार नहीं रहता है, बाहुलक से अगारि इस पद में) १-निरन्तर गमन ॥ २-सुगन्धि ॥ ३-हंसी के साथ प्रणाम॥ ४-आश्रय॥५-नाश। ६-कल्याण ॥ ७-निन्दाके योग्य ॥ ८-सूत्रविशेष ॥ ६-श्रवण ॥
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