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श्रीमन्त्रजगुणकल्प महोदधि ।
अर्थात् निषेधक (१) है, अर्थात् प्रतिवादी है, उसका जो "हन्ता" अर्थात् निवारक (२) है; अर्थात् जो परमेश्वर को नहीं मानता है, उसको हटाता है। तात्पर्य यह है कि प्रमाणवेत्ता (३) पुरुष सर्वज्ञ को स्थापित करता है, दो नत्र प्रकृति (४) अर्थ में हैं
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४३ -- “ अज” नाम सर्वज्ञ का है, उनकी जो "हे" अर्थात् पूजा है, उसकाजो " अणति' कथन करता है, अर्थात् उपदेश करता है, उस पुरुषको नमस्कार हो, तात्पर्य यह है कि पूजा का स्थापक पूजा के योग्य होता है ॥
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४४—–“अन्त” शब्द-स्वरूप, निकट, प्रान्त, निश्चय, नाश, तथा अवयव अर्थ का वाचक है, तथा “अर्हन्” पूज्य और तीर्थङ्कर को कहते हैं, "म" अर्थात् शिव है, वह कैसा है कि- " अहन्तारा" है, अर्ह अर्थात् सब के योग्य 'अन्त” अर्थात् स्वरूप; उसका " अण” अर्थात् उपदेष्टा (५) है, ( अण धातु शब्द अर्थ में है ), एकाक्षर निर्घण्टु में “म” नाम चन्द्र, शिव और विधि का कहा है, ईश्वर सब पार्थो के यथार्थ स्वरूप का वक्ता (६) नहीं हो सकता है, क्योंकि उसके कहे हुए तत्वों में व्यभिचार ( 9 ) छाता है,
४५ –“ज” छाग को कहते हैं, उससे ( ऋक् धातु गति अर्थ में है ) जो गमन करता है उसका नाम “अजारि" है; अर्थात् छाग वाहन (c) वह्नि (2) को "प्रजारि" कहते हैं, ( यहां शील अर्थमें इन् प्रत्यय होता है हिंदू धातु गति और वृद्धि अर्थ में है ) उस ( जारि ) को जो " हाययति” अर्थात् बढ़ाता है उसका नाम " प्रजारिह" है, बहिन का बढ़ाने वाला अग्निहोत्री होता है, इस प्रकार का जो ( श्रग्निहोत्री ) पुरुष है उसको नमस्कार हो, यह, उपहास (१०) है; वह कैसा है कि " तारा है "ता” अर्थात् शोभा को जो कहना है उसका नाम “ताय" है, अर्थात् वह "हम श्रग्नि होत्री हैं" इस प्रकार का अभिमान करता है ॥
४६ – “मोचा” शब्द शाल्मली (११) और कदली (१२) का वाचक है, तथा" मोच” नाम शिग्रुका (१३) है, यह अनेकार्थमें कहा है, इसलिये “मोचा”
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१- निषेध करने वाला ॥२- निवारण करने वाला ॥ ३-प्रमाण का जानने वाला ॥ ४- प्रस्तुति विद्यमानता ॥ - उपदेश करने वाला ||६-बोलने वाला || ७ - मिथ्यात्व ॥ ८-बकरा है वाहन (यान) जिसका ।। ६-अग्नि ॥ १०- हंसी, ठट्ठा ।। ११-एक प्रकार का वृक्ष ॥ १२- केला ॥ १३-एक प्रकारका बृक्ष |
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