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द्वितीय परिच्छेद ॥
( ७१ ) का अरि है उसका नाम " प्रजारि" है अर्थात् कन्दर्प, (९) उसका हनन ( २ ) करने वाले नीरागों को नमस्कार ह ॥
३५ - कोई पुरुष धर्म से पराङ मुख (३) किसी धनवान् से कहना है कि (लिहीं धातु आस्वादन अर्थ में है; उससे लिहनम् इस व्युत्पत्ति के करने पर लिहः शब्द बनता है, बाहुलक से भावमें क प्रत्यय हो जाता है, जिस का लिह नहीं है उसे प्रलि कहते हैं अर्थात् "अलिह” नाम अभक्ष्य का है, उसको तुम “अ” अर्थात् फेंको अर्थात् त्याग दो, (वृद्धि अर्थवाले अबू धातु से किप् प्रत्यय करने पर ऊ शब्द बनता है, उसका श्रामन्त्रण (४ में हे श्रो ऐसा बनता है, अतः ) हे "ओ” अर्थात् हे धनवृदु' मा ” अर्थात लक्ष्मी" त्राण ” अर्थात् शरण(५)नहीं होती है, तात्पर्य यह है कि- विरति (६) ही रक्षा करने arit होती है, इस लिये तू अभक्ष्य आदि का त्याग करदे ||
३९- “ ज” नाम छाग का है, उसको जो 'लिहन्ति” अर्थात् खाते हैं; उन को "अजलिह” कहते हैं; इस प्रकार के जो “त" अर्थात् तस्कर हैं उन का " मोच" अथात् मोक्ष नहीं हो सकता है, तात्पर्य यह कि-कर्म मुक्ति (9) नहीं हो सकती है, (मोचनम् इस व्युत्पत्ति के करने पर मोचः ऐसा शब्द बन जाता है इसमें न्ति से अच् प्रत्यय होता है ) ॥
४०—“मोचा” अर्थात् कदली (८) है, वह कैसी है कि- "लिह” अर्थात् भोज्य की "ता” अर्थात् शोभा जिससे होती है, अर्थात् भोज्य में सार भूत
"न म" ये दो निषेध प्रकृत (९) अर्थ को बतलाते हैं ।
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४१ – “अई” नाम पूजा का है, उसका जिसमें “अन्त” अर्थात् विनाश हो जाता है उसे “अहन्ता, कहते हैं, इस प्रकार की "मा,, अर्थात् लक्ष्मी नहीं होती है, तात्पर्य यह है कि-लक्ष्मी सर्वत्र पूजा को प्राप्त होती है, "राम" शब्द श्रलङ्कार अर्थ में है ॥
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४२ – ( "माति” इस व्युत्पत्ति के करने पर "मः" ऐसा पद बनता है, • कचिड्डः” इस सूत्र से ड प्रत्यय हो जाता है), "म" नाम प्रमाण (१०) वेदी पुरुष का है, वह कैसा है कि- "अ" नाम परमात्मा उसका "प्ररि”
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१-कामदेव ॥ २-नाश ॥ ३ - बहिर्मुख, रहित ॥ ४- सम्बोधन ॥ ५- आश्रय देने बाली ॥ ६-वैराग्य ॥ ७-कर्म से छुटकारा ॥ ८- केला ।। ६- प्रस्तुत ॥ १० - प्रमाण का जानने वाला ॥
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