________________
श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥
३२ – “म” शब्द से राशि तथा भवन भी कहा जाता (९) है, इसलिये "अरि म, अर्थ. त् रिपुभवन में जब “म” अर्थात् चन्द्रमा "न प्राकः " अर्थात् प्राप्त नहीं हुआ है तब कार्य ( कार्य शब्दको ऊपर से जान लेना चाहिये ) “अण,, अर्थात् मफल होता है, तात्पर्य यह है कि छठे भवन में चन्द्रमा त्याज्य (२) होता है ।
( ७० )
३३ – ' ता” अर्थात् तावत् " अन” अर्थात् शकट (३) है, वह कैसा है कि "नमः” अरिह अर्थात् "नमे दरिह है, “नम्” अर्थात् "नमत्" अर्थात् नीचे होता हुआ, फिर “उत” अर्थात् ऊंचा होता हुआ, इस प्रकार का "रि" अर्थात चक्र होता है, उन दो चक्रों से ' हन्ति” अर्थात् गमन करता क्योंकि शकट दो चक्रों से चलता है ॥
३४
- "म" अर्थात् ईश्वर है, वह केसा है कि "अरहन्ता" है, "अरं" अर्थात् शीघ्र “इ” अर्थात् कामदेव का इन्ता (नाशक) है, "णम्" शब्द . लङ्कार अर्थ में है ॥
"
३५ - “ता” अर्थात् शोभा; तत्प्रधान (४) " अण" अर्थात् शब्द अर्थात् साधु शब्द यानी यश जो है वह " न श्रोजोऽर्हम्” प्रोज नाम बलका है, उसके योग्य नहीं है, तात्पर्य यह है कि -बल से यश नहीं होता है ( मकार नादाशिक (५) है ), अणम् इस पद में “ लिङ्गनतन्त्रम् ” इस सूत्र से नपुंसक लिंग मान लेने पर दोष नहीं है ) ॥
ܢ
、
३६–“अर”अर्थात्_श्रत्यर्थ: ( ६ ) इमान्त' अर्थात् हाथीका नाशक सिंह (9) उसका “अग” अर्थात् शब्द अर्थात् सिंह नाद है, उसको तुम "जय" अर्थात् प्राप्त हो, यह बात सुभट (८) से कही जाती है कि जिससे मू अर्थात वन्धन न हेा, (स्त्रराणां स्वराः इस सूत्र से प्रकार आदेश हो जाता है ) |
·
"
५७ – “ज” नाम छाग (९), हरि, (१०) त्रिष्णु, रघुज, (११) ब्रह्मा और कान देवका है, इस प्रनेकार्थ वचन से “झन" नाम ईश्वर का है, वह जिस
१- अर्थात् म शब्द राशि तथा भवनका भो वाचक है ॥ २-त्याग करने योग्य ॥ ३- छकड़ा ।। ४- शोभा है प्रधान जिसमें ।। ५-सूत्र से असिद्ध, निपातन सिद्ध ॥ ६ - अत्यन्त ही ॥ ७- नाश करने वाला ॥ ८-योद्धा, वीर ॥ ६-वकरा ॥ १०- इन्द्र ॥ ११- रघु का पुत्र ॥
Aho! Shrutgyanam