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द्वितीय परिच्छेद ॥
उक्त एकमौदश अर्थो का भाषानुवाद (१)
१-अहंतों को नमस्कार हो, यह मुख्य अर्थ है ॥
२--“अरि" नाम वैरियों का है, उनके जो “ हन्ता " (मारनेवाले) हैं; उनको “अरि हन्त” कहते हैं, अर्थात् सब वैरियों का नाश करने वाले चक्रवर्ती, उनको नमस्कार हो, यह उनके सेवकों का वचन है।
३–जिसमें अर ( पारे ) होते हैं उसको “ अरि ” कहते हैं, अर्थात् चक्र, उस (चक्र ) से मारने वाले अर्थात् वैरियों का नाश करने वाले जो चक्रवर्ती हैं, उनको नमस्कार हो ।
४-"ह" नाम जलका है, उसका "त्राण" अर्थात् रक्षा करने वाला अर्थात् सरोवर है । वह ( मोवर ) कैसा है कि-मोद अर्थात् हर्ष का अरि ( वैरी ) के समान वैरी है, अर्थात् शोक, (२) वह "मोदारी” अर्थात् शोक जिमसे नहीं होता है, इस लिये उसे “नमोदारि” कहते हैं, (नखादि गण में पाठ होने से ना रह गया, जैसे कि " प्रक्रियां नातिविस्तराम , इत्यादि प्रयोगों में रह जाता है) ।
५-"अरि” अर्थात् चक्र को जो "हन्ति” अर्थात् प्राप्त होता है. उसे 'अरिह” कहते हैं, उस “ अरिह " अर्थात् चक्रधर विष्णु को "नम” नम. स्कार करो, (नम यह क्रियापद पञ्चमी (३) के मध्यम पुरुष के एक वचन में बनता है ) वे विष्णु कैसे हैं कि-"त्राण” अर्थात् अपने सेवकोंके शरण भत(४) हैं, “ो” शब्द सम्बोधन अर्थ में है ॥
६-"ह" नाम जलका है; उस से जिसका "तान" अर्थात् विस्तार वा उत्पत्ति होती है उसका नाम "हतान" है, इस लिये हतान अर्थात कमल है, वह कैसा है कि-"नमोदालि"-है, "नम” प्रहवी भाव (५) को कहते हैं,
१-ग्रन्थकार के कथित भ्रमास्पद विषयों में संस्कृतमें ही टिप्पणी में उल्लेख कर स्वमत प्रदर्शित किया गया है-किन्तु भाषा में अनावश्यक समझकर उन विषयों का उल्लेख नहीं किया गया है ॥२- मोद ( हर्ष ) का अरि (वैरी) होने से मोदारि नाम शोक का है ॥ ३-लोट् लकार ॥ ४-शरणदायक ॥ ५-नम्रता ॥
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