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खंड १
शाक विस्तार उदय हुई | तिवारें श्री सूरीई देव कथक थकी श्री वीर निर्वाण हूया पछी चउदसई अनि चउसठि वर्षि, पुनः वि० सं० ९९४ वर्षे श्रीसर्वदेव सूरी, प्रमुत्र आठ आचार्य स्वपाटि थाप्या । तिवारई तिहां थकी वडने अहिनांणि पांचमो व गछ एड्वो नांम प्रसीद्ध हूओ | पिण ते सथला गुरु भाई शालाई रह्या । तिहां थकी महिमावंत तीर्थनी यात्रा करी अझारी नगर आव्या । तिहां संपति निर्मापित श्रीवीर प्रासादि डाकरा शिष्यनें योग्यजाणी सूरपद देई श्रीवर्द्धमान तीर्थकरना प्रासादनि अहिनाणि श्रीवर्द्धमानसूरी नाम दीधुं । गुरु कृपा जांणी श्री सारदाई बालिका रूपें गुहलीयें स्वस्तिक की । तुष्टमांन हुई । प्रा० सा रांके पदोत्सव कीधो । हनी गूर्जरी विहार कीधानी आज्ञा दीधी । श्रीसूरी
३४ तट्टे श्रीविमलचंद्र सूरी |
श्री
तहनें श्रीपद्मावतीना साहाज्य थकी चित्रकूट पर्वतs नीत्ये एक भूक्ति जांण ( ५०२ ) वा श्री उद्योतन स्वर्गसिद्धिनी प्राप्ति हुई । सूरीना मेदपाटी धांवल नगरि स्वर्ग हुआ || ३६ पट्टे श्री सर्वदेव सूरी ।
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जैन साहित्य संशोधक- परिशिष्ट
उथा यशोभद्रसूर४
ए त्रिहु काल प्रणामतां
दूरीय प्रणास इंदूरि ॥ १ ॥ इतेि सांडेर गछे आ० श्रीयशोभद्रसूरी संबंध | ३२ तलट्टे श्री प्रद्युम्नसूरी |
श्री सूरीना उपदेश थकी पूर्व दिसि सतर प्रासाद हुया | ११ ज्ञांनना भंडार लिखाच्या । सात यात्रा श्री समित गिरिनी श्रीसूरी कीधी ||
३३ तत्पट्टे श्रीमानंदेव सूरी ।
श्री सुरीइं श्रावक श्राविकान हेतु उपधान चहि निविद्या प्रगट की । ए त्रिहुंनओ अल्प आयु जाणिवओ | ( ४९-२ )
३५ तत्पट्टे उद्योतन सूरी |
पूर्व दिशि श्री समेत गिरिनी यात्रा पांच करी । ए तीर्थ कहेव छई । यतः
विंशत्यास्तिर्थकरैरजितदिभिर्यत्र शिवपदं प्रातं । देवकुतस्तुपगणः स जयति समेतगिरिराजः ॥ १ ॥ पुनः एतलइ सांभल्यु, जे अर्चूदाचल उपरि विमल दंडनायके श्री रुषभ चिंच थाप्यी, तीर्थ प्रगट कीधो जीन श्रीसूरी मनित्युं चितवई जे --
अष्टषष्टेषु तर्थिषु यत् पुण्यं किल यात्रया आदिनाथस्य देवस्य दर्शनेनापि तद्भवेत् ॥ १ ॥ ते माटि आबू, नंदिय, जंभणवाड, दआिण प्रभु इणि नेत्रि न निहाल्या; एहवा हर्ष संहित श्रीगुरु तिहां थकी विहार करता थका आवूनी तलहविडं टेली नाम गाम, तेहनी सीमई, मोटी घणी साधा युक्त वृक्षो विस्तार देषी, उष्ण कालई, शीतल छायाई श्री सुरि तिहां विश्राम्या । एतलई श्री सर्वानुभूति यक्ष प्रगट हुया | प्रसन्न प ( ५० - १ ) णि श्रीसूरी ने कहई -आ शुभ वटिका छई, ते माटि तुम्हें तुह्मारा शिष्यनें आचार्य पद दीओ, तओ आ वड वृक्षनी परि अखंड
श्री सूरी विचरता भरु अचि नगरि आया | तिहां कान्हडीओ योगी श्री गुरुनें गृहस्थनो बहुमान देषी कोध करी ८४ सानो करंड लावी शालाई वाद करवा आवी बैठो ! तिवारे श्री सूरीये ते देवतां जिमणा हाथनो कनिप्रांगुलीई करी पातानि चिहूं पासई भूमंडलें वलयाकारें त्रिण रेषा कीधी । एतले तिणै ८४ सर्प nist थकी काढी गुरु सांहमा मुक्या । ते रेषा त्रिणताई आवई पिण आगिले न आवई । पाछा कंडीई आवी बईठा | पछी ति जहिले कांधि करी वंशनलिका थकी काही सिन्दुरीओ सर्प महा विषाकुल गुरु साहमो मुक्यौ । ते रेषा त्रिसूत्री जाई पाछो आयो । एहवे. चउसटि योगिणि माहिली क्रूरुकुलानामि देवि ते धर्मशाला बाहिरई पिपली वृक्षई रहै है । तिणे गुरुनें उग्र तपस्त्री जांणी तिही आवी सिंदूर सापनी दादा बंध करी । योगीगुरुने नमी पोतानि स्थां (५१-१ ) निक गयो । श्री गुम्नी कीर्ति हुई । पुनः श्री गुरुना उपदेश थकी वि० सं० १००२ बर्षि सत्तावीस प्रासाद हुआ | प्रतिष्टया |
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