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________________ जैन साहित्य संशोधक परिशिष्ट (३६-२) क्षमाश्रमण ध्यान शतकना करणहार प्रगट सांभली जे हरीभद्र चिंतवै जे महारी विद्यानो प्रयास हुआ । पुनः एहवे छ युगप्रधान प्रगट हूया तेहना नाम निफल हूओ । ए गाथा साधवी कथक तेहनो अर्थ मुझ थकी न उपनो । साधवीनें कहें---.7 गाथानो अर्थ नागहसि। सूरी १ कहो । साधवी कहै-नगर बाहिरे वाडी अम्हारा गुरु रहै छै रेवतीमित्र सूरी २ ते अर्थ कहे त्ये । तिवारे हरिभद्रे वाडीमाहि जाई गुरु ब्रह्माद्विप सूरी ३ वांदि, गाथा पूछी, अर्थ सांभली, प्रातेशा संपूर्णि शिष्य नागार्जुन सूरी ४ हओ । योग्य गीतार्थ जांणी श्रीगुरे आचार्य पद (३८-२) भूतदिन्न सूरी ५ देइ, श्री हरिभद्र नाम दीधु । श्री सूरीइं तिहां थकी भावडहार श्रीकालिक सूरी ६ विहार कीधो । श्री हारभद्र भृगुक्षेत्र मास काल्प रया । एवं पद युगप्रधान जांणावा । इणी कालिकाचाय तिहीं रहता श्री हरिभद्र सुरीनें हंस १ अनि परमहंस श्रीवीर निर्वाण हुआ पछी ९९३ वर्ष, कटला एक आचार्य २ नामि बिहू शिष्य शिरोमणी शास्त्रना पाठी छै कहें-नवसै अनि ऐ.सी वर्ष या पछी, पुनः विक्र० तिणे गुरू बीनवा-अम्है बोध मतनी वि५०० अनि त्रेवीस वर्ष गये हूते चौराणु काल नो विवरो धानी उद्यम करवा बौद्ध देसि जासु । गुरु कहे ए नही। कह्यो । ए पिण श्रीजा कालक सूरीश प्रभावक जांणवा । तो ही पीण कपट थी ते बिहू बौद्ध मत श्रीवीर निर्वाण थया पछी एक हजार वर्षमाहि नी विद्याना रहस्य लेवा बोद्ध देशो जाई बौद्धाचार्य पासे एकवीस वर्षे ओछइं, पुनः विक्र० ५४५ वर्षे याकिनी बिहूं सिष्य विद्या भणता हूया | एकदा पुस्तीकाई शामहत्तरा सुत श्री हरिभद्र सूरी प्रगट हूया । तेंहनी स्त्रना अक्षरने विषे बौद्धाचार्यई खटीका दीधी दोटी । उत्पत्ति कहै छै चित्त विचारि जे कोइक जैन छै । ते बेहनी परीक्षा करमगध देसी कुमारीया ग्रामि हारिद्रायण गोत्रैः हारि- वाने निश्रेणीनई पावडीइं जिन प्रतिमानो स्वरूप खडीने भद्र नामई ब्राह्मण व्याकर्ण प्रमुख खट् शास्त्रनो वेत्ता षंड थकी आलेखो, गुरु छात्रने भणाववानई मेंढीई बेठा । रहै छै । वर्ण ब्रह्म क्रीयाई करी कुशल छ पिण प्रति- एतले बोदना विद्यार्थि स्वरूप उपरे पग मकीने मणवा ज्ञावंत छै । जे कोई मुन्हे प्रश्न पूछई तेहनो (*३८-१) आव्या । तेहने पाछीले हंस १ परमहंस २ आव्या । अर्थ न उपजै तओ हुं तेहनो शिष्य थाउं । इम चितवी जिन बिंब देषी खडीना खंड थकी प्रतिमा तीर्थ यात्राई निकल्यौ, भृगुक्षत्रने पांम्यो । तिहां एकदा उपरई जनोइनो आकार ( ३९-१ ) करी, ते उपर पग संध्याई नगरमा वाजारे जातां धर्मशालाई साधवी प्रति थापी, आवी आचार्य पासि भगवा बैठा। आचार्य क्रमण संपूर्ण आवस्यक सूत्रनी गाथा गुणे छई। जाण्यु जे ए. जैन छै । अनि बिहुँ शिष्ये जाण्यु जे आचाचक्की दुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की ये आपणने जैन जाण्यां | मरणना भय थकी पुस्तीका केसव चक्की केसव दुचक्की केसवो चक्की ।। १।। लेई नभमार्गे विद्याबली पोताना देशि निकळ्या । आचार्य ए गाथा उभे रही हरीभद्रे सांभली, शालाई आवी जाण्यु । बौद्ध राजाने कहयु-ए जैन मालिम हुआ. कहई-भी साधवी जी तुम्हे कीस्यो आ चिगाचिगायमान आपणां मतनी विद्याना रहस्यनी पुस्तिका लेइ जाई छै। शब्द कह्यो । ते सांभली साधवी कहै नवु शास्त्र लषीइं सांभली राजाई सैन चडाव्युं । विद्या युद्ध करतां प्रथम तिवारे चिग २ शब्द हुई । एह साधवी कथक वचन हंसने हण्यो | बीजा परमहंस साथि विद्यावाद करतां *हस्तिलिखिन पनि मा ३७न' बदले मूलथी ३८नो आंक परमहंस लडथडीओ आवतो २ श्रीभृगुकछई शकुनिका बखाएलो होवाथी ३७ मां पानानो आंक आप्यो नथी. विहारि तिणे बौद्धनी पुस्तिका नांधी पछी ते बीजा परमहंसने Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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