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________________ ४४ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट. [खंड AANANAMANS रुनओ कहइं-स्वामी तुम्हे मुझने घमासनो नियमनो श्री रत्न प्रभ सूरी कहें-श्री गुरु आ किस्यु ? तिवारि प्रासाद करो | तिवारी श्री रत्नाकर सुरी कहें-किस्यो गरु कहिं-मझ प्रतिबोधक गृहस्थने ए गाथानो सत्याध नियम ? सा० रुनओ कहइं तुम्ह बांदि अन्न लेवो । जे कहियो छइं तेह थकी कहिणी अनि करणीमा फेर दुई दिने न वांद तओ अन्न न लीऊ। तेहनी श्री गुरुइं बीजइंदीने प्रभातें ते सा० रुनओ आवी पहिलानी परि तिमज नियम दिधो | एतले ते श्रावक छ ( ८३.२) वांदि मुष थको कहई तुम्हे कृपानिधि मुझने प्रसन्न हुई । मासनो अभिग्रही हूओ । निरंतर सूर्योदयें श्री पासनई सत्यार्थ कहो। ते गृहस्थ वचन सांभली श्रीगुरि रजहरण नमी पछी रत्नाकर सूरीने त्रिण्य प्रदिक्षणाई वांदी मुखा- मघपट्टी प्रमुख साध धर्मना उपगरण संभाली नोरवद्य ग्रि उभी रहि बिहु हाथ जोडी मुषी महर्षि उपसमनी थकी ( ८४-२ ) 'दोष समूल जाला० ॥ १ ॥' ए गाथा कही बिरुदावई छई । ते गाथा-- गाथानो यथार्थ अर्थ कह्यौ । एतलि ते श्रावकि सात कलसा गोयम सोहम जंबू पभवो सिजभवा य आयरिया । मुक्ताफलनो चूर्ण छारी दीधों देषी कहइं आज मई तुह्म अन्नेवि जुगप्पहाणा ते दीटहं सुगुरु ते दीठा ||१|| मुखि सत्यार्थ धणे दिहाडई सांमली तुम्हारी कृपा थकी मज कयत्थो जम्मो अज्ज कयत्थो जीवीयं मुज । हुं भव निसारयो । आज तुह्मारा दर्शन थकी मुझ जन्म जेण तुह् वदणामयरसेण सिद्धाइं नैणाई ।। २ ।। कृतार्थ हुओ । तुझे श्री वीरना पट्टधर हुई शासन शोववरीया सुरघेणु संजाया मह गिहे कणयबुष्टि भावओ | इम बिरुदावि सा० रुनओ अनुक्रमें स्व घरे दारिई अज्ज मयं दिठे तुह सुगुरु मुह कमले ।।३।। धवलकई नगर पुतो । एतलि श्री गुरुई स्वशिष्य श्री पुनः-पंचिंदिय संवरणो० ॥ ४ ॥ रत्नप्रभ सूरीने गछ भलावी श्री संवनी आशा लही पंचमहव्वयजुत्तो० ।। ५ ।। निस्पृह हुई विहार कीधो । केतलेंक दिने श्री सूरी एहवा वृद्ध आचार्यनी उपमा आपी हेटो बेसई धिर्य- चित्रोड गढी आमा । तिहां ओ• वृ० कुकट चुपडा पणई श्री सूरी प्रति ललित बाक्यि करी ए गाथानो अर्थ गोत्रि सा० समरा प्रति धर्मापदेश कहै छई । यतःपूछई । ते गाथा सव्यं १ सुकुले जन्म २ सिद्धिक्षेत्र ३ समाधयः । दोसस्स मूलजालं पुठवीषि विवज्जियं जद वत्थं । संघश्चतुर्विधो लोके ५ सकाराः पंच दुर्लभाः ।१॥ अयं वहसी अनधं किं च अन्नथं तवं चरसी || १|| अष्टषष्टीष तीर्थेषु यत्पुण्य किल यात्रया । इणि परि ते गाथाने अरथ पूछता संपूर्ण छमास आदिनाथस्य देवस्य दर्शनेनापि तद् भवेत् । २ । हआ। श्री सूरी पिण तेहनी निरंतर बुद्धिने प्राक्रमइ जिन क्त्त्वा मुनिं भक्त्या, कृत्वा साधर्मिवात्सलं।" थकी ते गाथानो नवो नवो अर्थ कही समुज्झावई । अ एन केन प्रकारण पुरुषः प्रसिद्धो भवत् । ३ । नुक ( ८४.१) मि छमासने अंतें सा० रुनो गुरुने श्रीगु ( ८५-१ ) रुनो उपदेश एहयो सा० समरो वांदी कहइं भवतारक निग्रंथ स्वामी! मूझ अजाणनई पामी श्री सिद्धशैलि श्री सोमप्रभ सूरी युक्त बि लक्ष . जेहवो अर्थ हुई तेहवो ज कहओ | तिवारइं श्री सूरी मनस्युं विचारि जे ए गृहस्थ धणे उद्यमि मुजनइं हितू न __ मनुष्यई संघपति हुई वि० सं० १३७१ वर्षे श्री शत्रु जय गिरे श्री रुषभ बिंब थापि पंदरमो उद्धार । पणाई हूई छई । गुरु कहे छइं हे गृहस्थ ! तुम्हे प्रभाति अवस्य आवीवो । किस्या माटि जे हिवणां सत्य अर्थ म निपजाव्यो। कह्यानो समय छई नही । इम कही विसर्जव्यौ। तिवारि तिहां संघ साक्षि श्री रुषभना मुष आगलि श्री संध्याई श्रीगुरु कलसी सात मुक्ताफलनो परिग्रह असार रत्नाकर सूरीइं स्व चारित्र घडण आलोयाणि रुपि जाणी घरटीई पीसी छारी दीघो, एतले स्व शिष्य आ० 'श्रयः श्रियां मंगल.' रूप स्तवने पंचवीसी निपजावी । Aho I Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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