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५० जैन साहित्य संशोधक।
[ भाग १ में पहुंचा था तब उसे मालूम हुआ कि उसके अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः । आनेके कछ ही समय पहले, आचार्य धर्मपाल
ग्राह्य-ग्राहकसावीत्तभेदवानिव लक्ष्यते ॥ जो विद्यापीठके अध्यक्षस्थान पर नियुक्त थे, निवृत्त हो गये थे। हुएनत्सांगके समय धर्मपाल
इससे यह मालूम होता है कि कुमारिलने दिके शिष्य आचार्य शीलभद्र अपने गुरुके स्थान पर
. ग्नाग और धर्मकीर्ति-दोनों के विचारोंकी समालोप्रतिष्ठित थे । उन्हींके पाससे हुपनत्सांगने विद्या
चना की है । अतः यह सिद्ध होता है कि कुमारिल लाभ किया था। इस वृत्तान्तसे यह शात होता है
धर्मकीर्ति के बाद हुए ।धर्मकीर्ति जब ईस्वी की ७ वीं कि धर्मपाल ई. स. ६०० से १५ के बीच में शताब्दीक पूचाद्धम विद्यमान थे तब कमारिल विद्यमान थे।
कमसे कम उसी शताब्दीके अंतमें होने चाहिए । __ महामति धर्मकीर्ति भी धर्मपालके शिष्य थे इस
कुमारिलका नामोल्लेख, जैसा कि ऊपर बतलाया लिये उनके बादके २५ वर्ष धर्मकीर्तिके अस्तित्वके
गया है,हाभिद्रने किया है और हरिभद्रका नामस्ममानने चाहिए । अर्थात् ई. स. ६३५ से ६५० तक
रण कुवलयमालाकथाके लिखनेवाले दाक्षिण्यचि. वे विद्यमान होंगे। इस विचारकी पुष्टिमें दूसरा
न्हने। दाक्षिण्यचिन्हका समय ई. स. की ८ वीं
शताब्दीका तृतीय भागनिश्चित है। अतः हारभद्रका भी प्रमाण मिलता है । तिब्बतीय इतिहास लेखक तारानाथने लिखा है कि टिबेटके राजास्रोत्संगम्पो
अस्तित्व उसके प्रथमार्धमें या मध्यम-भाग में जो ई. स. ६१७ में जन्म था और जिसने ६५९-९८
मानना पडेगा। इस प्रकार, भर्तृहरि और कुमारिल
' के कालक्रमसे विचारा जाय; अथवा धर्मकीर्ति तक राज्य किया था, उसके समयमें आचार्य धर्मकीर्ति तिब्बतमें आये थे। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है ।
और कुमारिलके कालक्रमसे विचारा जाय-दोनों
गणनासे हरिभद्रका ८ वीं शताब्दी ही में-फिर कि हुएनत्सांग जब नालंदाके विद्यापीठमें अभ्यास :
चाहे उसके आरंभमें या मध्यम-होना निश्चित करता था तब धर्मकीर्ति बहुत छोटी उम्रके होंगे।
होता हैं। इस लिये उसने अपने प्रवास-वृत्तांतमें उनका । नामोल्लख नहीं किया। परंतु हुएनत्सांगके बादके
___इसी तरहका, परंतु इनसे भी विशिष्ट, और एक चीनी यात्री इत्सींगने-जिसने ई. स. ६७१-६९५ हरिभद्र सरिने ३३३६ श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका
प्रमाण है । नन्दीसूत्र नामक जैन आगम ग्रंथ ऊपर तक भारतमें भ्रमण किया था-अपने यात्रावर्णनमे लिखी है। इस टीकामे, (जिस तरह आवश्यकसूलिखा है कि दिग्नागाचार्यके पीछे धर्मकीर्तिने
तिन की टीकामें, आवश्यकचूर्णिमेसे शतशः प्राकृत न्यायशास्त्रको खूब पल्लवित किया है । इससे जाना
पाठ उद्धृत किये हैं वैसे) उन्होंने बहुतसी जगह, जाता है कि इत्सींगके समयमें धर्मकीर्तिकी प्रसिद्ध
इसी सत्र पर जिनदास महत्तरकी बनाई हुई चूर्णि खूब हो चुकी थी । अतः इन सब कथनोंके मेलसे धर्मकीर्तिका अस्तित्व उक्त समयमें (ई. स. ६३५
नामक प्राकृत भाषामय पुरातन व्याख्यामेंसे जैसेके
वैसे,बडे लंबे लंबे अवतरण दिये हैं । जिनदास महत्त६५०) मान लेनेमें कोई आपत्ति नहीं है।
रने नन्दीचूर्णि शक संवत् ५९८ (= विक्रम संवत् ___ अध्यापक का. बा. पाठकने अपने ‘भर्तृहरि और कुमारिल' नामक निबन्धमें लिखा है कि-'मी.
७३३% ई.स. ६७६ ) में समाप्त की थी। इस सम
यका उल्लेख, इस चूर्णिके अन्तमें स्पष्ट रूपसे इस मांसाश्लाकेवातर्कके शून्यवाद-प्रकरणमें कुमारिलने बौद्धमतके 'आत्मा बुद्धिसे भेदवाला दिखाई
प्रकार किया हुआ है:
'शकराज्ञः पञ्चपु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टदेता है ' इस विचारका खण्डन किया है । श्लोकवार्तिककी व्याख्यामें इस स्थान पर सुचरितामश्र- :
नवतिषु नन्धध्ययनचूर्णिः समाप्ता। ' ने धर्मकीर्तिका निम्न लिखित श्लोक, जिसको ५४ नन्दीसूत्रचूर्णि, डेक्कन कालेज पुस्तक संशंकराचार्य और सुरेश्वराचार्यने भी लिखा है,। ग्रह, नं, ११९५, सन् १८८४-८७. चारवारंवार उद्धृत किया है।
'' पांच सौ वर्ष पहले के किसी एक : जन विद्वान्ने
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