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हरिभद्र सूरिका समय निर्णय । उदाहरणके लिये, हरिभद्रसूरिने नन्दीचूर्णिमेसे पुस्तक, नं. ११९७, सन् १८८४-८७ पृष्ठ ५.) जो पाठ अपनी टीकामे उद्धृत किये हैं उनमेंसे एक नन्दीसूत्रकी बृहट्टीकामें, आचाराङ्गसूत्र विषयक हो पाठ यहां पर लिख देते हैं।
व्याख्यानमें, मलयगिरि सूरिने 'तथा चाह चूर्णिकृत्.' . इस सूत्रके प्रारंभमे जो स्थविरावली प्रकरण है लिखकर, निम्न लिखित पाठ, नन्दीचूर्णिमेसे उसकी ३६ वीं गाथा की, जिसमें 'खंदिलायरिय' उद्धृत किया हैकी प्रशंसा है, व्याख्या हरिभद्रने इस प्रकार दो सुयक्खंधा पणवीसं अज्पयणाणि एवं लिखी है। (मूल गाथा-)
आयारग्गसहियस्स आयारस्स पमाणं भणियं, ' जेसि इमो अणुओगो पयरइ अन्जावि अङ्कभरहम्मि।
अठारसपयसहस्सा पुण पढमसुयक्खंधस्स नवयंभचे. बहुनयरनिग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए॥
रमइयस्स पमाणं, विचित्तअत्थनिबद्धाणि य सुत्ताणि, व्याख्या-येषांमनुयोगः प्रचरति, अद्यापि गुरूवएसओ तेर्सि अत्थो जाणियन्वो ति।' अर्धभरते वैताढ्यादारतः । बहुनगरेषु निर्गतं प्रसृतं
नन्दीटीका, ( मुद्रित पृ. २११) प्रसिद्धं यशो येषां ते बहुनगरनिर्गतयशसः, तान् यही पाठ, हरिभद्रसूरिने भी अपनी टीकामें वन्दे । सिङ्घ ( सिंह ) वाचकशिष्यान् स्कन्दिलाचा- अविकलरूपसे उद्धृत किया हुआ है । (देखो, डे. योन् । 'कहं पुण तेस अणओगो! उच्यते- पु पृ. ७६) । ऐसे ही और भी कई जगह इस बारससंवच्छरिए महंते भिक्खे काले भत्तटठा अण्ण- प्रकारके पाठ उद्धृत हैं । इससे यह बात निश्चित ण्णतो हिंडियाणं गहणगुणणणुप्पेहाभावाओ विप्पणठे
हुई कि हरिभद्रसूरि, शक संवत् ५९८ (वि. सं.
० ७३३-ई. स. ६७६ ) से बाद ही में किसी समयमें ॥ सुसिक्स काल जाए महराए महत साधु- हुए हैं। गाथामें बतलाये मताबिक विक्रम संवत समुदए खंदिलायरियप्पमुहसंघेण जो जं संभरइ ति ५८५ में, अथवा, दूसरे उल्लेखों में लिखे मुजब, वी० एवं संघडियं कालियसुयं । जम्हा एयं महुराए कयं सं० १०५५ में नहीं हुए । चूर्णिके बने बाद कमसे तम्हा माहुरी वायणा भण्णइ । सा य खंदिलायरि- कम ५० वर्ष अनंतर ही हरिभद्रने अपनी टीका यसम्मत ति काउं तस्संतिओ अणओगो भण्णइ । लिखी होनी चाहिए । और इस लिये, इस हिसाबअन्ने भणंति जहा, सुयं ण णटुं। तम्मि दभिक्खे से भी उनका समय वही ईस्वीकी ८वीं शताब्दी काले जे अन्ने पहाणा अणुओगधरा ते विणठा । एगे "
र निश्चित होता है। खंदिलायरिए संधिरें (1), तेण महुराए पणो अणओगो इस प्रकार, भिन्न भिन्न प्रमाणोंसे हमने यह तो पवत्तिओ त्ति माहुरी वायणा भण्णइ । तस्संतिओ अ
सिद्ध कर दिखाया है, कि हरिभद्रसूरि प्राकृत अणुओगो भण्णइ ।।
गाथा आदिके लेखानुसार, विक्रमकी छठी शताब्दीमें
नहीं हुए परंतु आठवीं शताब्दीमें हुए हैं। परंतु (नन्दी टीका, डेक्क० पु० पृ.१३) इससे यह निश्चित नहीं हुआ कि, इस शता. इस अवतरणमें जितना प्राकृत पाठ है वह सारा हरिभद्रसूरिने चूर्णिमें ही से लिया है। क्यों ब्दीके कौनसे भागमें--कबसे कब तक--वे विद्यकि चूर्णिमे अक्षरशः यही पाठ विद्यमान है। (देखो. मान थे ?। कुवलयमाला कथाके आन्तम (प्रशस्ति-) डेक्कन कालेज संगृहीत, नन्दीचूर्णिकी हस्तलिखित
' लेखका ध्यानपूर्वक निरीक्षण करनेसे इस प्रश्नका
" भी यथार्थ समाधान हो जाता है। 'बृहट्टिप्पणिका' नामकी संस्कृतमें एक जैनग्रन्थसूचि जैन इतिहासके रसिक अभ्यासियोंको यह सुन बनाई है जिसमें भी, इस चूर्णिका रचना-काल वि. सं.७३३ (अर्थात् शक संवत ५९८) लिखा हुआ है। यथा- कर आनंदके साथ आश्चर्य होगा कि, कुवलयमाला'नन्दीसूत्रं ७०० [ श्लोक प्रमाणं] चर्णिः ७३३ के कर्ता उद्योतनसूरि ऊर्फ दाक्षिण्यचिन्ह खुद हरिवर्षे कृता । स्तंभ विना नास्ति ।'
भद्रके एक प्रकारसे साक्षात् शिष्य थे! इस कथा
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