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हरिकभन्द्र सरिका समय निर्णय ।
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गणता वर्तमान गणनाकी तरह एक ही प्रकार- सामान्य रीतिसे एक मनुष्यके व्यावहारिक जीवनके २० वर्ष नहीं होती थी। ऐसा सन्देह लानेमें कारण गिनते हैं और इस प्रकार एक शताब्दीमें पांच पुरुष-परंपमलते है और अगर ऐसा न हो तो भी प्राचीन राके हो जाने का साधारण सिद्धान्त स्वीकार करते हैं। इस सालमें निर्वाण समयकी गणनामें भूल अवश्य लिये ४ पटके ज्यादहसे ज्यादह सौ सवासौ वर्ष बाद कर, की आती थी, जो पीछेसे सुधार ली गई है ।" हरिभद्रको सीधे सिद्धर्षिके समकालीन मान लेनेमें अधिक
-डॉ. जेकोबीकी उपमि प्रस्तावना, पृ. ६-१०। युक्ति संगतता है।) .साहबके इस सब कथनका एकंदर सार दूसरा प्रमाण धनविजयजीने यह दिया है कि-रत्नसंचय सना ही है कि वे हरिभद्र और सिद्धर्षि--दोनोको प्रकरणमें, निम्न लिखित गाथार्धमें हरिभद्रका समय वीर समकालीन मानते हैं और उनका समय सिद्धर्षि- संवत् १२५५ लिखा है। यथाके लेखानुसार विक्रमको १० वीं शताब्दी स्वीकर- 'पणपण्णबारससए हरिभद्दो सूरि आसि पुव्वकर' पीय बतलाते हैं। हरिभद्रकी मृत्यु-संवत् सूचक इस गाथाके 'टवार्थ' में लिखा है कि-धीरथी बारसें माथामे जो ५८५ वर्षका जिकर है वह वर्षे विक्रम पंचावन वर्षे श्रीहरिभद्रसूरि थया। पूर्वसंघ (8) ना करनार ।' सेंवत्सरका नहीं परंतु गुप्त संवत्सरका समझना इस पर धनविजयजी अपनी टिप्पणी करते हैं कि, वीर संवत् चाहिए । गुप्त संवत् और विक्रम संवत्के बीचमे १२५५ मेंसे ४७० वर्ष निकाल देनेपर विक्रम संवत् ७८५ ३७६ वर्ष का अन्तर रहता है । इस लिये ५८५ में आते हैं। संभव है कि, हरिभद्र सूरिका आयुष्य सौ वर्ष जि३७६ मिलानेसे ९६१ होते हैं । इधर सिद्धर्षिकी तना दीर्घ हो और इस कारणसे वे सिद्धर्षिके, निदान बास्याकथाके ९६२ में समाप्त होनेका स्पष्ट उल्लेख है ही। वस्थामें तो, समकालीन हो सकते हैं (!)। अतः वे दोनों बराबर समकालीन सिद्ध हो जाते हैं। हरिभद्रके मृत्यु संवत् ५८५ को विक्रमीय न
___तीसरा प्रमाण उन्होंने यह लिखा है:-दशाश्रुतस्कन्ध
सूत्रकी टीकाके कर्ता ब्रह्मर्षिने 'सुमतिनागिलचतुष्पदी में मानने में मुख्य कारण, एक तो सिद्धर्षि जो उनको
लिखा है कि, महानिशीथसूत्रके उद्धारकर्ता हरिभद्रसरि अपना गुरु बतलाते हैं वह है, और दूसरा यह है कि हरिभद्रके निजके प्रन्थों में ऐसे प्रन्थकारोंका उल्लेख
: वीरनिर्वाणबाद १४०० वर्षमें हुए । यथाअथवा सूचन है, जो विक्रमीय ६ ठी शताब्दीके 'परस चउदसे वीरह पछे, पाद हुए हैं । इस लिये उनका उतने पुराणे समयमें
एग्रंथ लखिओ तेणे अंछे। होना दोनों तरहसे असंगत है।
दसपूर्वलग सूत्र कहाय, , . [टिप्पणी-मुनि धनविजयजीने चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार
पछे न एकान्ते कहवाय॥ नामक पुस्तकमें हरिभद्र और सिद्धार्षिके समकालीन होनेमें कुछ इस कथनानुसार विक्रम संवत् ९३० में हरिभद्र हुए दो-एक और दूसरे प्रमाण दिये हैं जिन्हें भी संग्रहकी दृष्टिसे सिद्ध होते हैं । उनके बाद ३२ वें वर्षमें सिद्धार्षने उपमितियहां पर लिख देते हैं। उन्होंने एक प्रमाण खरतर गच्छीय भवप्रपञ्चा कथा बनाई। इस प्रमाणानुसार भी ये दोनों रंगविजय लिखित पट्टावलीका दिया है। इस पावली में वि. समकालीन ही सिद्ध होते हैं।] . . सं. १०८० में होनेवाले जिनेश्वरसूरिसे पूर्व के ४ थे पट्ट ऊ- जेकोबी साहबने हरिभद्रसरिके समग्र प्रन्थ देखे पर हरिभद्रसूरि हुए, ऐसा उल्लेख है। अर्थात् जिनेश्वरसूरि विना ही केवल षड्दर्शनसमुख्यमेके बौद्धन्या३३ ३ पट्टधर थे और हरिभद्रसूरि २९ वें पट्टधर । इस यसम्मत प्रत्यक्ष प्रमाणके लक्षणको देख कर हीउल्लेखानुसार, मुनि धनविजयजीका कहना है कि, १०८. उन्होंने जो धर्मकीर्तिके बाद हरिभद्रके होनेका मेंसे ४ पटके २५० वर्ष निकाल देनेसे शेष ८३० वर्ष रहते अनुमान किया है, वह निःसन्देह उनकी शोहैं, सो इस समय में हरिभद्रसूरि हुए होंगे । (जब इस उल्लेख धक बुद्धि और सूक्ष्म प्रतिभाका उत्तम परिचय के आधार पर हरिभद्रको सिद्धर्षिके समकालीन सिद्ध करना देता है । क्यों कि, जैसा हम आगे चल कर सविस्तर है तो फिर ४ पटके २५० वर्ष जितने अव्यवहार्य संख्यावाले लिखेंगे, हामिदने केवल धर्मकीर्तिकथित लक्षणका वर्षे के निकालनेकी क्या जरूरत है । ऐतिहासिक विद्वान् अनुकरण मार ही नहीं किया है, परंतु उन्होंने म.
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