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- जैन साहित्य संशोधक।
[भाग.१ पने अनेकान्तजयपताकादि दूसरे प्रन्थों में इन योधकर गुरु बतलाये हैं, उसका क्या तात्पर्य है। महान् बौद्ध तार्किकके हेतुबिन्दु आदि ग्रन्थोंमेंसे इस बातका; और दूसरा, प्राकृत गाथामें और अनेक अवतरण भी दिये हैं और पचासों वार सा- उसके अनुसार अन्यान्य पूर्वोक्त प्रन्यों में हरिभद्रका: क्षात् उनका स्पष्ट नामोल्लेख तक भी किया है। स्वर्गमन जो विक्रम संवत्के ५८५ चे वर्ष में लिखा इस लिये डॉ. साहबका यह अनुमान निःसन्देह- है उसका स्वीकार क्यों नहीं किया जाता, इस बारूपसे सत्य है कि धर्मकीर्ति हारभद्र के पुरोयायी तका । इसमें पहली बातका-सिद्धर्षिके लिखे हुए थे। परंतु इस प्रमाण और कथनसे हरिभद्रका 'हरिभद्रपरक गुरुत्वका-समाधान इस प्रकार हैसिद्धर्षिके साथ एक कालमें होना हम नहीं स्वी- उपमितिभवप्रपञ्चा कथाम लिखे हुए सिक कार सकते। यदि डॉ. जेकोबीके कथनके विरुद्ध र्षिके एतद्विषयक वाक्योका सूक्ष्मबुद्धिपूर्वक जानेवाला कोई निश्चित प्रमाण हमें नहीं मिलता, विचार किया जाय और उनका पूर्वापर सम्बन्ध तब तो उनके उक्त निर्णयमें भी आविश्वास लाने- लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि, सिद्धर्षि हरिभद्रः की हमें कोई जरूरत नहीं होती और नाही इस को अपने साक्षात (प्रत्यक्ष ) गरुनहीं मानते परंत विषयके पुनर्विचारकी आवश्यकता होती । परंतु परोक्षगुरु-अर्थात् आरोपितरूपसे गुरु-मानते हैं। हमारे सम्मुख एक ऐसा असन्दिग्ध प्रमाण उप- उपमि० को प्रशस्तिमें जो उन्होंने अपनी गुरुपरस्थित हैं जो स्पष्टरूपसे डॉ. साहबके निर्णयके परा दी है, उसका विचार यहां अवश्य कर्तव्य है। विरुद्ध जाता है । इसी विरुद्ध प्रमाणकी उपलब्धि- इस प्रशस्तिके पाठसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि सि. के कारण इस विषयकी हमें फिरसे जांच करने द्धर्षिके दीक्षाप्रदायक गुरु गर्गर्षि थेकी जरूरत मालूम पडी और तदनुसार प्रकृत गर्गर्षिके हाथ से दीक्षा ली थी। प्रशस्तिके सातवें उपक्रम किया गया है।
पद्यमें यह बात स्पष्ट लिखी हुई है । यथा- अपनी इस जांचके परिणाममें हमें जो जो नये सद्दीक्षादायकं तस्य स्वस्य चाहं गुरुत्तमम् । प्रमाण मिले हैं उनको क्रमशः उल्लिखित करनेके नमस्यामि महाभागं गर्षिमुनिपुङ्गवम् ॥ पहले और उन प्रमाणोंके आधार पर जो सिद्धान्त प्रशस्तिके पाठसे यह भी ज्ञात होता है कि, हमने स्थिर किया है. उसका विस्तृत स्वरूप बत- गर्गर्षि मात्र सिद्धर्षिके 'दीक्षा गुरु 'थे, बाकी और लानेके पहले, पाठकोंके शानसौकर्यार्थ, अपने नि- र सब प्रकारका गुरुभाव उन्होंने दुर्गस्वामीमे स्थार्णयका सारांश हम प्रथम यहीं पर कह देते हैं कि, पित किया है । क्यों कि दुर्गस्वामीकी प्रशंसा में जा हमारे शोधके मुताबिक हरिभद्रसूरि न तो उक्त उन्होंने ५-६ श्लोक लिखे हैं और अपनेको उसका प्राकृत गाथा आदि लेखोंमें बतलाये मुजिब ६ ठी 'चरणरेणुकल्प ' लिखा है, तब गर्गर्षिको केवल शताब्दी में विद्यमान थे और न डॉ. जेकोबी सा- एक श्लोकमे नमस्कार मात्र किया है। साथमः हब आदि लेखकोंके कथनानुसार, सिद्धर्षिके. इस उपर्युद्धृत श्लोकमें दुर्गस्वामीको भी दीक्षा देने समान १० वीं शताब्दी में मौजूद थे। परंतु श्रमण वाले गर्षि ही बतलाये हैं । इससे यह भी अनुमा.. भगवान् श्रीमहावीरदेव प्ररूपित आहेत दर्शनके न होता है कि, शायद, गर्गर्षि मूल सूराचार्यक अजरामर सिद्धान्तस्वरूप अनेकान्तवाद' की 'जय- शिष्य और देल्लमहत्तरके गुरुबन्धु होंगे। उन्होंने पताका' को भारतवर्षके आध्यात्मिक आकाशमें ,
३३ ऊपरका कथन लिखे बाद पीछेसे जब प्रभावकचरित्र उन्नत उन्नततर रूपसे उडाने वाले ये 'श्वेताभक्षुः में देखा तो उसमें वही बात लिखी मिली जो हमने अबुमामहात्मा अपने उज्ज्वल और आदर्श जीवनले, नित की है । अर्थात् प्रभा० कारने गर्षिको. सूराचार्य ही के आठवीं शताब्दीके.सौभाग्यको अलंकृत करते थे। 'विनेय' (शिष्य ) लिखे हैं । यथा... अपने ईस निर्णयको प्रमाणित करनेके लिये 'आसीनिवृत्तिगच्छे च सूराचार्यो धियां निधिः। हमें केवल दो ही बातोंका समाधान करना होगा। तद्विनेयश्च गर्गर्षिरहं दीक्षागुरुस्तव ॥'' एक तो सिद्धर्षिने जो सरिभद्र सूरिको अपने धर्म
प्रभावकचरित्र, पृ० १.१, श्लो. ८५। ।
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