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[भाग १
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ईन) के
जैन साहित्य संशोधक। व्याख्या इस प्रकार है- प्रत्यक्ष कल्पनापोढं नाम- शताब्दीसे प्राचीन नहीं ऐसे ग्रन्थोमेसें मिल आती जात्याद्यसंयुतम् ।' ( देखो, न्यायवार्तिक, पृ. ४४; है। पिछले ग्रन्थकारोंने यह साल मनगढन्त खडी तात्पर्य टीका, पृ. १०२, तथा सतीशचन्द्र विद्याभू- .
__कर दी है,ऐसा कहनेका मेरा आशय नहीं है, परंतु षण लिखित-मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्रका
वास्तविक बातका भ्रान्त अर्थ करनेके कारण यह इतिहास, पृ. ८५, नोट २. ) हरिभद्रसूरिकी दी,
भूल उत्पन्न हुई है, ऐसा मैं समजता हूं । अन्तिम हुई व्याख्यामें आवश्यकीय 'अभ्रान्त' शब्दकी
नोटमें (-देखो नीचे दी हुई टिप्पणी ) दिखलाये वृद्धि हुई है, इस लिये जाना जाता है कि उन्होंने
हुए मेरे अनुमानका स्वीकार करके प्रो० ल्युमन धर्मकीर्तिका अनुकरण किया है। धर्मकीर्तिका समय
लिखते हैं (जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटिका जर्नल जैन दन्तकथामें बतलाये गये हरिभद्र के मत्यसमः पु.४३ पृ. ३४८.) कि ' अन्यान्य सालोके ( वही यसे १०० वर्ष पीछे माना जाता है। इस लिये हरि- जर्नल पु. ३७, पृ. ५४० नोट.) समान हरिभद्रके भद्रका यह संवत् सत्य नहीं होना चाहिए। पुनः
स्वर्गमनकी सालके बारे में भी संवत् लिखने में ग्रंथ. षड्दर्शनसमुच्चयके ११ वे श्लोकमें हरिभद्रसूरि
कारोंको भ्रान्ति हुई है । ५८५ की जो साल है वह बौद्धन्याय
वार या विक्रम संवत् की नहीं है परंतु गुप्त संवत् प्रकार लिखते हैं--
की है । गुप्त संवत् ईस्वी सन् ३१९ में शुरू हुआ रूपाणि पक्षधर्मत्वं सपक्षे विद्यमानता।
था। इस हिसाबसे हरिभद्रके स्वर्गमनकी साल
ई. स.९०४ आती है; अर्थात् उपमितिभवप्रपश्चाविपक्षे नास्तिता हेतोरेवं त्रीणि विभाव्यताम् ॥ की रचनासमाप्तिके २ वर्ष वहले आती है। यह
यह बौद्ध न्यायका सुज्ञात सिद्धान्त है, परंत कथन सच हो सकता है। परन्तु, दन्तकथा प्रचहरिभद्र प्रयुक्त पक्षधर्मत्व पद खास ध्यान खींचने लित वीर संवत् की १.५५ वाली साल ली जाय लायक है । क्यों कि न्यायशास्त्रके पुराणे ग्रन्थों में और भ्रान्ति ( भूल ) उसमेसे उत्पन्न हुई है ऐसा यह पद दृष्टिगोचर नहीं होता। प्राचीन न्यायग्रन्थों में माना जाय तो इस दन्तकथावाली सालमे होनेइस पद्वाच्य भावको दूसरे शब्दों द्वारा प्रकट वाली भ्रान्तिका खुलासा एक दूसरी तरह से भी किया गया है । यह पद न्यायप्रन्थों में पीछेसे प्र- किया जा सकता है । इस कल्पनाक करनेमे मुझे युक्त होने लगा है। इससे जाना जाता है कि निम्न लिखित कारण मिलता है। 'पउमचरियं हरिभद्रसूरि, कहे जानेवाले समयसे बादमें हुए नामक ग्रन्थके अन्तमें, उसके कर्ता विमलसूरि होने चाहिए । अष्टक प्रकरण नामक अपने ग्रन्थ कहते हक, यह ग्रन्थ उन्होंने वीर निर्वाण बाद ४ थे अष्टकमें हरिभद्र सूरिने शिवधर्मोत्तरका ५३० (दूसरी पुस्तक ५२० ) वे वर्ष में बनाया है। उल्लेख किया है। इससे भी यही बात
ग्रन्थकता इस कथनको नहीं मानने में कोई काहै; क्योकि अज्ञात समयका यह ग्रन्थ बहुत पुरातन र
गरण नहीं है । परंतु वह ग्रंथ ईस्वीसन्के ४ थे वर्षमें हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। शंकरकी श्वेताश्वतर बना था, यह मानना कठिन लगता है । मेरे अभि. उपनिषद्की टीकामें इस ग्रंथका नाम मिलता है। प्रायके मुताबिक 'पउमचरियं ' ईस्वी सन्की ३ री यदि, हरिभद्रसूरिके ग्रन्थोका ठीक ठीक अभ्यास या ४ थी शताब्दीमें बना हुआ होना चाहिए । चाहे किया जाय, और उनका बराबर शोध लगाया जैसा हो; परन्त पूर्वकालमै महावीर निर्वाण काल. जाय तो, दन्तकथामें बतलाये हुए समयसे वे अर्वा- जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटिके जर्नलकी ४० वीं जिचीन समयमें हुए थे, इसका प्रायः निर्णय हो ल्दमें, पृ. ९४ पर, मैंने लिखा है कि-हरिभद्ररि और शीजायगा।
लाङकाचार्य दोनोंके गरु जिनभद्र या जिनभट थे, इस लिये " हरिभद्रसूरिके स्वर्गमनकी साल (जो विक्रम वे दोनों समकालीन थे । शीलाङ्कने आचारागसूत्र ऊपर संवत् ५८५ और वीर संवत् १०५५ है ) १६ ७९., ई. स. ८७६ में टीका लिखी है।
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