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ऊब गये थे और शांतिपूर्ण सात्त्विक मार्गके कितने उत्सुक बन गये थे । अस्तु ।
जैन साहित्य संशोधक ।
[ भाग १
कार्यके लिये यदि वह जगत्के ऊपर अपने पूज्यत्वका अधिकार सदैव के लिये रखे तो उसमें उसकी कोई अनुचितता नहीं है ।
सिद्धसेन निर्ग्रन्थ-दीक्षा लेनेके पहले सर्व शास्त्र - पारंगत विद्वान् ब्राह्मण थे यह बात ऊपर सूचित की जा चुकी है । इस लिये निर्ग्रन्थ बनते ही उन्होंने अपनी सर्वज्ञकल्प शास्त्रशताका, जैन तत्त्वोंको न्यायसंगत बनाने में और स्याद्वादके सिद्धान्तको नय और प्रमाण द्वारा सुव्यवस्थित बनाने में, पूरा उपयोग किया । ब्राह्मणवर्ग अपने प्रतिपक्षियों पर जो 'नास्तिकता' का कुत्सित आरोप कर सर्व साधारणमें मिथ्याभ्रान्ति फैलानेका उद्योग किये करता था उसका प्रतिवाद और निराकरण करनेके लिये; तथा यथार्थ में आप्त-पुरुष कौन है, और किसका सिद्धान्त स्वीकरणीय होना चाहिए, इस विषयका उद्घाटन करनेके लिये, सिद्धसेनने बडे गंभीर और उच्च विचारवाले भिन्न भिन्न दृष्टिसे अनेक प्रकरण लिखे । ये वेही प्रकरण हैं जिनका जिकर हम ऊपर द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिकाओंके नामसे कर आये हैं । इन प्रकरणों में उन्होंने अपने पक्षका समर्थन और परपक्षका निरसन इतनी उत्तमता, इतनी मार्मिकता और इतनी गंभीरता के साथ किया है कि जिनको पढ़ कर सहृदय विद्वानोंको काव्यका, तर्कशास्त्रका और सत्यके साक्षात्कारका एक साथ ही आनंद आ सकता है । यह एक विचारणीय और ऐतिहासिक सत्य है कि, ब्राह्मणों के वर्चस्वका और कर्ममार्गका विरोध करनेवाले कृष्ण, महावीर, गौतमबुद्ध आदि क्षत्रिय वीर ही हैं और अध्यात्म मार्गकी गवेषणा कर जगत्को उसका उपदेश देनेवाले भी एक मात्र वे ही हैं; परंतु इन क्षत्रिय धर्म-प्रवर्तकों के सिद्धान्तोंको संगत, सुस्थित और सुप्रचलित करनेवाले फिर वेही ब्राह्मण ही हैं । भागवत, जैन और बौद्ध धर्मके समर्थ लेखक और आचार्योंकी जातिकी तरफ दृष्टि करते हैं तो अधिकांश ब्राह्मण जाति ही के ऐसे सरस्वतीवर-लब्ध पुत्र उत्पन्न किये हुए दिखाई देते हैं । निःसंशय ब्राह्मण जातिने जगत्के अज्ञानका नाश करनेमें सर्वाधिक श्रेष्ठ कार्य किया है । और इसी
सिद्धसेन सूरके बाद, दिगम्बर संप्रदायमें, उनके ही जैसे प्रतिभाशाली और प्रतापवान् आचार्य स्वामी समन्तभद्र हुए। समन्तभद्र के समयका अनुमान किया जाय ऐसा कोई भी विशिष्ट प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है, और न कोई वैसी विश्वसनीय जीवनकथा ही उनके बारे में दृष्टिगोचर होती है । इस लिये वे कब हुए इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकते । दिगम्बर पट्टावलियोंकी गणनानुसार विक्रमकी दूसरी शताब्दी में उनका अस्तित्व बताया जाता है। हमने इस विष यमें अभीतक कुछ भी विशेष विचार नहीं किया है । हम जो कुछ ऊपर ऊपरसे अनुमान कर सके हैं उसका सार इतना ही है कि सिद्धसेन के बाद थोडे ही समयमै समन्तभद्र हुए होंगे। इन दोनों की लेखशैली, विचारशैली और भाषाशैली बहुत कुछ मिलती जुलती है। भेद है तो केवल इत ना ही है कि सिद्धसेनकी कृतियोंमें गूढार्थता अधिक है और समन्तभद्रकी कृतियों में स्पष्टार्थता ।
इन दोनों आचार्योंके जीवनवृत्तांत संबंध में जो दंतकथायें पिछले जैनग्रंथों में देखी जाती हैं उनमें भी लगभग एक ही बात, कुछ थोडेसे फेरफार के साथ, कही हुई है । सिद्धसेनके बारेमें लिखा हुआ है कि, उन्होंने अवन्ती ( उज्जैनी) के राजा विक्रमादित्य के अत्याग्रह करने से, वहांके जगत्प्रसिद्ध महाकालेश्वरकी स्तुति करनी शुरू की जिसके प्रभावको महाकालेश्वरका महालिंग सहन न कर सकनेके कारण उसके टुकडे टुकडे हो गये और फिर उसमेंसे जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथकी मूर्ति प्रकट हुई। इससे राजा बडा आश्च र्य चकित हुआ और सिद्धसेनके पादतलमें मस्तक रख कर उनको अपना गुरु बनाया ।
इधर, समन्तभद्रकी कथामें भी इसके जैसी ही बात लिखी मिलती है। उन्होंने वाराणसी (काशी) के राजा शिवकोटिके आग्रह करने पर वहां के विश्वविख्यात विश्वेश्वर महादेवकी जब स्तवना करनी
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