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सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र। सेन और समन्तभद्र दोनों जैन समाजमें संस्कृ' मागम कांटे बिछा कर उन्हें मार्ग भ्रष्ट करनेके प्रयत-भाषा के विशिष्ट लेखक और प्रचारक थे। नका प्रारंभ किया गया था । समाधिशील निर्ग
हम ऊपर सूचित कर आये हैं कि सिद्धसेनके न्थाको, अपने मौनधर्मका इस प्रकार विपर्यास पूर्व ही में बौद्ध और ब्राह्मणों के बीच तक युद्ध आर दुरुपयोग होत देख जगत्के कल्याणार्थ और को शुरुआत हो चुकी थी, और इसलिये बोद्ध श्रमणों परमपुरुष महावारके मोक्षमागका सत्यत्व स्थाको पाली भाषाकं प्रवाहमसे निकलकर संस्कृतके पनार्थ, मौनधर्मका त्याग करना पडा; और फिर स्रोतमें दाखल होना पड़ा था और ब्राह्मणोंके समान बौद्ध भिक्षुओंको तरह वे भी जन सहवासमें आ ही तर्क-विषयक साहित्यका संगठन कर भगवान् कर, वाद-विवादके युद्ध-क्षेत्रमें उपस्थित हो कर, गौतम बुद्धके शासनका संरक्षण करनेमेवे काट- अपने प्रतिपक्षियोंका मुकाबला करने लगे। एसे बद्ध हो रहे थे। उन बौद्ध श्रमणोंका प्रभाव जैन ही एक विवाद-क्षेत्रम, वृद्धवादी नामक निग्रन्थानिर्ग्रन्थों पर बहुत असर कारक पडा और उनको चार्यके साथ वाद करते हुए चतुर्दशविद्यापारंगत अपने कार्य में सफल होते देख जैन निन्थोंने ब्राह्मणकुल-भूषण सिद्धसन पराजित हुए थ, आर भी उसी मार्गका अनुसरण करना शुरू किया। 'जो मुझे शास्त्रवादमें पराजित करे उसका मैं
बौद्धोंके साथ वाद-विवाद करते हुए ब्राह्मणों शिष्य बनूंगा,' एसो गावष्ठ प्रतिज्ञा करनवाल वि. की दृष्टि, शनैः शनैः बौद्धों ही के समान बहतसे द्योन्मत्त परंतु कृत-प्रतिज्ञाका पूर्ण निर्वाह करने आचार-विचार रखनेवाले और अतएव ब्राह्मण- जितना दृढ मनाबल रखनके कारण सत्य-प्रतिज्ञ वर्चस्व का विनिपात करनेवाले जैन निग्रंथाके, सिद्धसनको अपने विजेता आचायक पास निग्रशान्त परंतु स्थिर भावसे बढते जाते सामर्थ्य और न्थ-दीक्षा ले कर 'ब्राह्मणवर' से 'श्रमणवर' होना लोकप्रियत्व ऊपर भी पड़ने लगी। यद्यपि जैन पडा था। निग्रन्थ उस समय अपना प्रशमरसपरिपूर्ण जीवन सिद्धसनक उद्गारोंस पता लगता है कि उस केवल निर्जन-वनोंमें घूमते और धर्मध्यानमें मग्न समय निर्ग्रन्थाकी सरल वाद-पद्धति और आकरहते हो बिताते थे। उन्हें अपना अनुरक्त-वर्ग बढा. र्षक शांतवृत्तिका लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव नेका या सम्राटोंके गुरु बननेका कोई लोभ नहीं पड़ता था। निग्रन्थ अकेले-दुकले हो ऐसे स्थला. था। जनसमूहके विशेष संसर्गसे वे दूर दूर रहते पर जा पहुंचते थे, और ब्राह्मणादि परवादाविस्तृतथे । इसलिये ब्राह्मणों को अपनी आजीविका और शिष्य समूह और जनसमुदायके सहित राजसी लोकप्रतिष्ठामें उनकी तरफसे किसी विशेष आघात ठाठ-माठ के साथ पेश आते थे, तो भी जो यश के आनेकी आशंका करनेका आधिक कारण नहीं निर्ग्रन्थाको मिलता था वह उन प्रतिवादियोको था । तथापि, बौद्ध श्रमणोंकी जनहितकर प्रवृत्ति अप्राप्य था । यह बात स्वयं सिद्धसेनमारने, और सेवाभावनासे आकर्षित हो कर लोकमत दिन महावीर स्तुतिरूप प्रथम द्वात्रिंशिकामें इस प्रकार प्रतिदिन जो उनका अनुरक्त होता जाता था और प्रकट की है:ब्राह्मणोंके प्रति जो शिथिलादर होता जाता था, अलब्धानष्ठाः प्रसमिद्धचेतसइसके कारण मनस्वी ब्राह्मणोंको सात्त्विक वृत्ति स्तव प्राशष्या प्रथयन्ति यद्यशः । तमःप्रधान बन गई थी । इस कारणसे, उन्होंने अनात्मवादी बुद्धानुरागियोंके साथ साथ परम
न तावदप्येकसमूहसंहताः आत्मवादी निर्ग्रन्थानुयायियोंको भी 'नास्तिक' प्रकाशययुः परवादिपार्थिवाः ॥ 'नास्तिक ' कह कह कर परमाप्त भगवान महावीर इस कथनसे उस समयको लोकरुचिका भी के मोक्षमार्गका तिरस्कार करना शुरू कर दिया पता लगता है कि लोक ब्राह्मणोंके जल्पवितण्डा था। और इस प्रकार मुमुक्षु आत्माओंके कल्याणके परिपूर्ण शुष्कवाद और कर्मकाण्डके प्रपंचसे कितने
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