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जैन साहित्य संशोधक।
[भाग १ विचार किया जाता है और न कोई व्याकरण, काव्य मौलिक अतएव नवीन विचारोंका परिचय कराने कोषादिका अभ्यास किया जाता है; उसी तरह के लिये, श्रमण-समूहकी साधारण और प्रिय भाषा शायद उस पुराणे जमानेके बहुतसे श्रमणोंका हाल जो उस समय प्राकृत थी, उसमें भी कुछ लिखने रहा होगा सम्मातितर्कके अन्तमे, सिद्धसेनसूरिने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी । 'सम्मतिप्रक' तम्हा आहिगयसुत्तण अत्थसंपायणम्मि जइअवं।, रण' का प्राकृत भाषा में होना हमारे इस अनु. इत्यादि प्रकारका जो उल्लेख किया है और सत्र मान का विशिष्ट कारण है । ऐसा न होता तो (मूलपाठ) के साथ अर्थसंपादन करनेमें भी फिर, वैसा प्रौढ और तर्क-प्रवण ग्रंथ संस्कृत यतियोंको यत्न करना चाहिए, ऐसा जो उपदेश भाषाके अत्यंत अनुरागी और महाकवि हो कर भी दिया है, उससे हमारे इस विचारकी पुष्टि होती वे प्राकृत जैसी सरल और साधारण भाषामे है। अर्थ-परिज्ञानके सिवाय, और व्याकरण.काव्य. क्या लिखत।। कोष, आदिक सर्व-साधारण ज्ञानके सिवाय समन्तभद्र स्वामीने प्राकृत भाषामें कोई ग्रंथमनुष्यको न तत्त्वबोध हो सकता है और न वह रचना की है या नहीं, इस का कुछ पता नहीं लग दूसरोको करा सकता है । सर्व-साधारण परि- सकता । परन्तु उनके नामसे जितने ग्रंथ वर्तमाज्ञानके उक्त सब साधन भारतवर्ष में प्राचीन का. नमें प्रचलित और प्रसिद्ध है-और उन को उन्हीं लसे एकमात्र संस्कृत भाषा ही में उपलब्ध होते हैं। की कृति मानने में कोई विशेष सन्देह-जनक कारण वर्तमानमें अंग्रेजीकी तरह प्राचीनकालमें संस्कृत भी नहीं है-उनके विषयका विचार करने से ही विद्वानोंके व्यवहारकी मुख्य भाषा थी । इस प्रतीत होता है कि उन्होंने प्राकृतमें कोई रचना लिये जैनश्रमणोंको बहश और विशिष्ट विदान नहीं की होगी। रत्नकरण्ड बनानेके लिये संस्कृत भाषाके अध्ययन-अध्या- विषय प्राकृतमें गंये जानेके योग्य था । ऐसे धर्मपनकी, आवश्यकता थी । यह आवश्यकता तब तत्त्व-प्रतिपादक ग्रंथ, जैन साहित्यमें संस्कृतकी ही पूरी हो सकती है जब उत्तम और प्रौढ विचार अपेक्षा प्राकृत ही में अधिक उपलब्ध हैं, और समाके ग्रंथ इस भाषामें बनाये गये हो और जिनके जको प्रिय भी इसी भाषाके ग्रंथ अधिक हो सकसीखनेकी श्रमणोंको खास जरूरत मालूम देती ते है । क्यों कि अज्ञान बालक-बालिकाये और हो। इस लिये सिद्धसेन दिवाकरने संस्कृत ही में मन्दमात स्त्रिये भी उन्हें सरलतापूर्वक पढ सकता अपने प्रौढ और गभीर विचार लिपिबद्ध करने हैं । श्वेताम्बर संप्रदायमे तो बहुत अर्वाचीन कालशुरू किये । परंतु, जैन श्रमों में संस्कृतका नया तक भी ऐसे प्रथ प्राकृत ही में लिखे गये हैं । रत्नही प्रवेश था, इस लिये, जैसे वर्तमानमें इंग्रेजी करण्डकका दिगम्बर संप्रदायमें सभी स्त्री-पुरुष भाषाके देशी विद्वानोंको अपने विशिष्ट विचार पाठ पढते-सुनते रहते हैं, इस लिये संस्कृती इंग्रजी ही में व्यक्त करना आधिक पसंद होने पर अपेक्षा यह ग्रंथ प्राकृत में होता तो लोगोंको और भी, स्वदेशानवासी सर्वसाधारण जनसमूहको, भी आधिक सुगम और सरल पडता। परंतु हमारे अपने विचारोंका परिचय करानेके लिये मातृभाषा- विचारले, दिगम्बराचायोंमें, स्वामी कुन्दकन्दके में भी कुछ थोडा-बहुत लिखना पडता है; वैसे ही बाद, प्राकृत भाषा ऊपरसे बिलकुल प्रेम ऊठ गया शायद सिद्धसेनसूरिको, ( यहां पर सिद्धसेनको था । और उसके ऊठ जाने में मुख्य कारण स्वामी लक्ष्य कर यह कथन लिख रहे हैं, इसलिये प्रधा- समन्तभद्रका संस्कृत-प्रेम और उनकी उसीमें नतः उनका ही जिकर करना पड़ता है, परंतु यह रची गई सब कृतिय हैं। समन्तभद्रकी देखादेखी बात इस प्रकारके अन्य विद्वानों के लिये भी स- पिछले प्रायः सब ही दिगम्बर विद्वान् , विशेष कर मझ लेनी चाहिए ) संस्कृत भाषा ही में लिखना संस्कृत ही में प्रथ--रचना करते रहे हैं । अस्तु । विशेष प्रिय होने पर भी सभी श्रमणोंको अपने हमारे इस लिखनेका मतलब यही है कि, सिद्ध.
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