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सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र । जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः। समान ही उनकी प्रामाणिकता स्वीकृत की गई है। बोधयान्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥
सिद्धसेनसूरिके बारे में लिखे गये इन ऊपर्युक्त इसी तरह आदिपुराणके कर्ता महाकवि जिन
विचारोंके अवलोकनसे विश पाठक जान सकेंगे
कि जैन धर्मके समर्थक आचार्यों में उनका कितना सेनाचार्य (द्वितीय) ने भी अपने महापुराणके
ऊंचा आसन है और पिछले लेखकों द्वारा वे कितने प्रारंभमें निम्न लिखित श्लोक द्वारा सिद्धसेन सूरि
_ सत्कृत हुए हैं। के पाण्डित्यकी प्रभुताका उल्लेख कर उनके प्रति अपना आदर-भाव प्रकाशित किया है।
स्वामी समन्तभद्र । प्रवादिकरियुथानां केशरी नयकेशरः ।
अब हम कुछ हाल सिद्धसेनसूरि ही के समासिद्धसेनकवि याद विकल्पनखराङकरः ॥ नासनासीन स्वामी समन्तभद्रके बारेमें निवेदन . भट्ट-अकलंक देवके ग्रन्थों में भी सिद्धसेन सूरिके कर
र करना चाहते हैं। वचन प्रमाणतया उद्धृत किये हुए दिखाई देते हैं।
श्वेताम्बर साहित्यमें जो स्थान सिद्धसेन दिवाइससे उनकी प्रामाणिकताका पूरा परिचय मिल
- करको मिला है वहीं स्थान दिगम्बर साहित्यमें जाता है और जैन धर्मके दोनों संप्रदायों में उनकी
स्वामी समन्तभद्रको प्राप्त है । श्वताम्बर संप्रदायके प्रतिष्ठा एकरूपसे स्वीकृत की गई है यह स्पष्ट
तर्कशास्त्र-विषयक साहित्य ऊपर जितना प्रभाव जाना जा सकता है।
सिद्धसेनसूरिकी कृतियोंका पडा है, उतना ही। लक्ष्मीभद्र नामक दिगम्बर विद्वानके बनाये हुए
प्रभाव दिगम्बर संप्रदायके तद्विषयक वाङ्मय एकान्त खण्डन नामक ग्रन्थमें
ऊपर स्वामी समन्तभद्रकी कृतियोंका पडा है। अनेकान्तलक्ष्मीविलासाऽऽवासाः सिद्धसेना- अ
जिस तरह श्वेताम्बर साहित्यमें सिद्धसेनके पूर्व
स सिसनायाम कालीन कोई स्वतंत्र तर्क-विषयक ग्रन्थ उपलसिद्धि प्रत्यपादयन्
ब्ध नहीं है, वैसे ही दिगम्बर साहित्यमें समन्तभद्रके 'असिद्धं सिद्धसेनस्य............'
पूर्वका वैसा कोई ग्रंथ नहीं है। वताम्बर संप्रदा'नित्यायेकान्तहेतोढुंधततिमहितः
यमें संस्कृत भाषाके पद्यात्मक प्रौढ ग्रंथोके प्रथम सिद्धसेनो ह्यसिद्धम्।
प्रणेता जैसे सिद्धसेन हैं, वैसे ही दिगम्बर संप्रदाइत्यादि प्रकारके उल्लेखो द्वारा, सिद्धसेनसरिका यम समन्तभद्र हैं। इन दोनों विद्वानोंके पहले, समन्तभद्रादिक आचार्योंके साथ हेतके स्वरूप- दाना संप्रदायोमे संस्कृत भाषाका विशेष अभ्यास विषयक विचार-विरोधका आदर यत वर्णन और आदर नहीं था। तब तक जैन श्रमणोंमें किया हुआ है, और इस प्रकार समन्तभद्रादिकके प्राकृत भाषा ही का प्रभुत्व था। श्रमणोंके अभ्यासके
- विषय भी बहुत नहीं थे। जिस तरह, वर्तमानमें १ तत्त्वार्थ राजवातिकके ८३ अध्यायके १ म सूत्रके १७ श्वेताम्बर संप्रदायकी स्थानकवासी (ढूंढिया) वें वार्तिकमें, सिद्धसेन सूरिका, प्रथम द्वात्रिंशिकान्तर्गत निम्न नामक शाखाके साधुओमे बहुधा देखा जाता है लिखित सुप्रसिद्ध पद्य उद्धृत किया हुआ है।
कि उनमें केवल मल-सूत्रोंका पाठ कंठस्थ कर लेनेके सनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्ति
तथा सारा दिन बैठे बैठे वह पाठ मात्र पढते-चांचते स्फुरन्ति या: काश्चन सूक्तसंपदः।
रहनेके सिवा, न कोई सूत्रोंके अर्थका विशेष तपेव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता । जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविषुषः ॥
१ इस विचार-विरोधके स्पष्टीकरणके लिये किसी भगले यह पद्य और भी अनेकानेक ग्रंथकारों द्वारा यत्र तत्र अंकमे हम एक आधा छोटासा लेख लिखना चाहते हैं ।पाठक उद्धत किया हुआ दृष्टिगोचर होता है। इस पद्यगत तब ही ध्यान पूर्वक इस विषयको पढे । यहां पर तो सिर्फ विचार सिटसेनसरिके मलिक विचार है। ..
सूचन मात्र कर दिया गया है।
पातमाहतः
Aho! Shrutgyanam