________________
क
सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र।
प्रारंभ की तो उसके सामर्थ्यसे विश्वेश्वरका महा- इसलिये इन दन्तकथाओंमें कुछ सत्यांश अवश्य लिंग फट कर उसमेंसे चतुर्मुख जैनमूर्ति प्रकट होना चाहिए, ऐसा अनुमान करनेकी तरफ हमारी हुई ! समन्तभद्र के इस प्रभावसे मुग्ध हो कर वह चित्तवृत्ति सहज खींची जाती है। राजा उनका शिष्य बन गया!
सिद्धसेन और समन्तभद्र दोनों महाकवि और मालूम नहीं इन दंतकथाओम कितना तथ्य है। महावादी थे। उनका महाकवित्व तो उनकी चिरं. इनके आकार-प्रकारसे तो विद्वानोंको ऐसाही भास जीव कृतियोंमें स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा है और हो सकता है कि केवल इन आचायाकी महिमा महावादित्वका अनुमान उनकी कृतियों में कट कट बढाने के लिये ये कथायें मनगढन्त बना ली गई हैं, कर भरे हुए पाण्डित्यको देख कर सहज किया जा और सिद्धसेनको कथा ही में कुछ नाम परिवर्तन सकता है। इन प्रवादि-करि-केशरियोंने अपने कर समन्तभद्र को भी लागू कर दी गई है। परन्तु जायनमें कहां कहां पर किन किन विद्वानोंके साथ संभव है कि इनमें कुछ ऐतिहासिक सत्यांश भी वाद-विवाद कर दिग्विजयिपना प्राप्त किया हो ।
अवन्तीकी और समन्तभद्रने था इसके जाननेका कोई साधन नहीं है। सिद्ध काशीकी ब्राह्मण-परिषद्म-जिस तरह न्यायाचार्य सेनकी कथाओंमें, उनके मालव देशमें विचरण यशोविजयजीने काशीकी विद्वत्सभामें विजय प्राप्त के साथ दक्षिण देशमें विचरण करनेका भी उल्लेख किया था वैसे--दार्शनिक बाद-विवाद कर विजय किया हुआ है, इस लिये इन देशोंमें तो उनके प्राप्त किया हो, और उसके स्मरणार्थ पाण्डित्यके प्रकाश-किरण सर्वत्र अवश्य फैले ही उन उन स्थानों में जैन मंदिरोंको प्रतिष्टा होंगे । अन्य देशोंके विषयमें कुछ नहीं कह सकते। करवा कर जैन धर्मका खब जयजयकार समन्तभद्रके दिग्विजयका क्षेत्र बहत विस्तत है करवाया हो । ऐसी बातें समय समय पर अनेक दक्षिणके प्रसिद्ध दिगम्बर जैन तीर्थस्थल श्रवणबेल जगह होती रही हैं, इस लिये सिद्धसेन और गोलाके विन्ध्यगिरि पर्वत ऊपर एक मन्दिर में समन्तभद्रके समयमें भी ऐसी ही कोई बात बनी 'मल्लिषेण प्रशास्त' नामका एक बहुत बडा शिलाहो और उसीको लेकर ऊपर्युक्त दंतकथा--अर्द्धसत्य- लेख है । इस लेखमें समन्तभद्रके पारचायक कुछ मिश्रित होकर--प्रचलित हो गई हो, तो उसमें कोई प्राचीन पद्य उत्कीर्तित हैं जिनमेंसे निम्न लिखित असंभवनीयता नहीं है। अवन्ती और वाराणसी पद्यमें उनके दिगविजय-क्षेत्रका अच्छा उल्लेख ये दोनों नगरियां प्राचीन कालसे ब्राह्मणोंकी राज- किया हुआ है ।-- धानियांसी बनी हुई हैं । उस समय में जितने बडे बडे पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता दिग्गजविद्वान् हुआ करते थे वे अवश्य इन क्षेत्रोंकी पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं सङ्कटम् यात्रा किया करते थे और वहांके विद्वत् समाजोंमें
पादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ भिन्न भिन्न विषयोंपर शास्त्रार्थ कर अपने पाण्डि- इस पद्यमें समन्तभद्र को स्वयं अपने मुखसे त्यका प्रमाण पत्र तथा वियजपताका प्राप्त कर कृत- किसी एक राजाको सभामें यह बात कहते हुए बकृत्य होते थे । सिद्धसेन और समन्तभद्र दोनों बडे ताये गये हैं कि, उन्होंने कौनसे कौनसे हैप्रखर वाग्मी और प्रचण्ड वादी थे इसमें तो कोई शोमें वाद-विवाद कर विजयपताका प्राप्त की है। सन्देह ही नहीं है। उनकी ऐसी प्रसिद्धि तब ही पयका अर्थ इस प्रकार है:हो सकी होगी जब उन्होंने अवन्ती और वारा
और व्याख्यानवाचस्पति' अपने आपको बडे धाष्टर्य णसी जैसी सरस्वतीके वरपुत्रोंकी वासभूमीमें
के साथ कहलात फिरते हैं, वैसे धृष्ट उस जमाने में नहीं होते जा कर वहांके दिग्गज विद्वानांक साथ शा- और यदि कोई मर्ख वैसा करने का साहस कर भी लेता स्त्रार्थ कर महती प्रतिष्ठा प्राप्त की होगी।
तो तीसरे ही दिन लोग उसके दंड-कमंडलु छन कर, लंगोटी. १ आजकल जैसे निरक्षर भट्टाचार्य भी 'शास्त्रविशारद' भर बहिष्कृत कर देते थे।
Aho! Shrutgyanam