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जैन साहित्य संशोधक
[ भाग १
पाई जाती । प्रत्युत, श्रुतसागरसूरिने अपने अध्य- ब्रह्मनेमिदत्तने आराधना कथाकोशमें समयन विषयक अथवा टीकाके आधार विषयक जिन न्तभद्रकी एक कथा दी है परंतु उसमें उनके किसी प्रधान ग्रन्थों का उल्लेख अपनी टीकाकी संधियोंमें भी गन्धहस्तिमहाभाष्यके नामकी कोई उपलब्धि किया है उनमें साफ तौरस श्लोकवार्तिक और नहीं होती। सर्वार्थसिद्धिका ही नाम पाया जाता है, गन्धहस्ति- ६- संस्कृत प्राकृतके और भी बहुतसे उपलब्ध महाभाष्यका नहीं । यदि ऐसा महान् ग्रन्थ उन्हें ग्रन्थ जो देखनमें आये और जिनमें किसी न किसी उपलब्ध होता तो कोई वजह नहीं थी कि वे उस. रूपसे समन्तभद्रका स्मरण किया गया है उनम का भी साथमे नाम'ल्लेख न करते ।
भी हमें स्पष्टरूपसे कहीं गन्धहास्त महाभाष्यका २-आप्तमीमांसा ( देवागम ) पर, जिसे गन्ध- नाम नहीं मिला । और दूसर अनेक विद्वानोंसे जो हस्तिमहाभाष्यका मंगलाचरण कहा जाता है, इस इस विषयमें दर्याप्त किया गया तो यही उत्तर समय तीन संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध है। एक 'वसु. मिला कि गन्धहस्ति महाभाध्यका नाम किसी प्रानन्दिवृत्ति,'दूसरी अष्टशती और तीसरी अष्टसहस्री' चीन ग्रन्थ में हमारे देखने में नहीं आया, अथवा हमे इनमेंसे किसी भी टीकामें गन्धहस्ति महाभाष्यका कुछ याद नहीं है। कोई नाम नहीं है, और न यही कहीं सूचित किया ७-ग्रन्थके नाममें 'महाभाष्य' शब्दसे यह है कि यह आप्तमीमांसा ग्रन्थ गन्धास्ति महाभा- मचित होता है कि इस ग्रन्थसे पहले भी तत्त्वार्थभाष्यका मंगलाचरण अथवा उसका प्राथमिक सत्र पर कोई भाष्य विद्यमान था जिसकी अपेक्षा अंश है। किसी दूसरे ग्रन्थका एक अंश होनेकी इसे महाभाष्य' संज्ञा दी गई है । परंतु दिगम्बर हालतमे ऐसी सूचनाका किया जाना बहुत कुछ साहित्यस इस बातका कहीं कोई पता नहीं चलता स्वाभाविक था। ३-श्रीइन्द्रनन्दि आचार्यके बनाये हुए श्रुता
कि समन्तभद्रसे पहले भी तत्त्वार्थसूत्र पर कोई वतार ' ग्रन्थमें भी समन्तभद्र के साथ, जहाँ कर्म
भाष्य विद्यमान था। रही श्वेताम्बर साहित्यकी प्राभूतपर उनकी ४८ हजार श्लोकपरिमाण एक
बात, सो श्वेताम्बर भई इस बातको मानते ही हैं सुन्दर संस्कृत टीकाका उल्लेख किया गया है वहाँ
कि उनका मौजूदा ' तत्त्वार्थाधिगम भाष्य' स्वयं गन्धहस्ति महाभाष्यका कोई नाम नहीं है। बल्कि
- उमास्वातिका बनाया हुआ है। परंतु उनकी इस इतना प्रकट किया गया है कि वे दूसरे सिद्धान्त
मान्यताको स्वीकार करने के लिये अभी हम तैय्यार ग्रन्थ ( कषाय प्राभूत ) पर टीका लिखना चाहते
नहीं हैं । उनका वह अन्य अभी विवादग्रस्त है । थे परंतु उनके एक सधर्मी साधुने द्रव्यादिशुद्धि.
उसके विषयमें हमें बहुत कुछ कहने सुननेकी जरू. कर प्रयत्नोंके अभावसे उन्हें वैसा करनेसे रोक ।
रत है। इस पर यदि यह कहा जाय कि बादको दिया। बहुत संभव है कि इसके बाद उनके द्वारा
बने हुए भाष्योंकी अपेक्ष बहुत बडा होनेके कारण कोई बड़ा ग्रन्थ न लिखा गया हो।
' उसे पछेिसे महाभाष्य संज्ञा दी गई है तो यह मा४-श्रवणबल्गुलके जितने शिलालेख
नना पड़ेगा कि उसका असली नाम 'गन्धहस्ति भद्रका नाम आया है उनमेसे किसीमें भी आचार्य ।
भाष्य ' अथवा 'गन्धहास्त' ऐसा कछ था । महादयक नामके साथ 'रन्धहस्ति महाभाष्य'का ८-ऊपर जिन प्रन्यादिकोका उल्लेख किया गया उल्लेख नहीं है । और.न यही लिखा मिलता है कि है उनमें कहीं यह भी जिकर नहीं ह. कि समन्तउन्होंने तत्त्वार्थसत्र पर कोई टीका लिखी है। डॉ भद्रने ८४ हजा श्लोकपारमाणका कोई ग्रन्थ रचा उनके शिष्य शिवकोटि आचार्यके सम्बन्ध इतना है और इस लिये गन्धहस्ति महाभाष्यका जो परि कथन जरूर पाया जाता है कि उन्होंने तत्वार्थ- माण ८४ हजार कहा जाता है उसकी इस संख्याकी सूत्रको अलंकृत किया, अर्थात उसपर टीका लिखी भी किसी प्राचीन साहित्यसे उपलब्धि नहीं होती। (देखो शिलालेख नं०१०५)
९-जब उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर ८४ हजार
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