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अंक २ ]
गन्धहस्तिमहाभाष्यकी खोज
आस्ट्रिया के एक प्रसिद्ध नगरकी प्रसिद्ध लायब्रेरी में उक्त ग्रंथ मौजूद हो और हर्मन जैकोबी जैसे खोजी विद्वानों को उसका पता तक न लगे, यह बात कुछ समझ में नहीं आती । हमें इस ग्रंथ विषय में यह बात भी बहुत खटकती है कि ' आप्त मीमांसा' अर्थात् ' देवागम ' शास्त्रको, जो कुल ११४ श्लोकपरिमाण है, इसका मंगलाचरण बतला या जाता है । देवागम भारतके प्रायः सभी प्रसिद्ध भंडारोंमें पाया जाता है । उस पर अनेक टीका, टिप्पण और भाष्य भी उपलब्ध हैं । अकलंकदेवकी ' अष्टशती' और विद्यानंद स्वामीकी 'अष्टसहस्री' उसीके भाग्य और महाभाष्य हैं। जिस ग्रंथका मंगलाचरण ही इतने महत्त्वको लिये हुए हो वह शेष संपूर्ण ग्रंथ कितना महत्त्वशाली होगा और विद्वानोंने उसका कितना अधिक संग्रह किया होगा. इसके बतलाने की जरूरत नहीं है । विज्ञ पाठक सहज ही में इसका अनुमान कर सकते हैं । प रंतु तो भी ऐसे महान ग्रंथका भारतके किसी भं डा में अस्तित्व न होना, उसके शेष अंशोंपर टी का-टिप्पणका मिलना तो दूर रहा उनके नामोंकी कहीं चतक न होना, यह सब कुछ कम आश्च मैं डालनेवाली बातें नहीं हैं । और इनपरसें तरह तरहके विकल्प उत्पन्न होते है । यह खयाल पैदा होता है कि क्या समन्तभद्रने 'गंध हस्तिमहाभाष्य नामका कोई ग्रंथ बनाया ही नहीं और उनकी आ तमीमांसा ( देवागम ) एक स्वतंत्र ग्रंथ है ? यदि बनाया तो क्या वह पूरा न हो सका और आप्तमी मांसा तक ही बनकर रह गया ? यदि पूरा हो गया था तो क्या फिर बन कर समाप्त होते ही किसी कारण विशेषसे वह नष्ट हो गया ? यदि नष्ट नहीं हुआ तो क्या फिर प्रचलित सिद्धांतोंके विरुद्ध उसमें कुछ ऐसी बात थी जिनके कारण बाद के आ चार्यों खासकर भट्टारकोको उसे लुप्त करने की ज रूरत पड़ी अथवा बादको उसके नष्ट हो जानेका कोई दूसरा ही कारण है : इन सब विकल्पोंको छोडकर अभी तक हमें यह भी मालूम नहीं हुआ कि. १ समन्तभद्रने 'गंधहस्तिमहाभाष्य' नामका कोई ग्रंथ बनाया है, २ वह उमास्वातिके तत्त्वार्थ सत्रका भाष्य है, ३ उसकी श्लोकसंख्या ८४ हजार
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है और 'देवागम' स्तोत्र उसका अ दिम मठाचरण है: इन सब बातोंकी उपलब्धि कहांसे होती है - कौन ने प्राचीन आचार्य के किस ग्रंथसे इन सब बातोंका पता चलता है ? यह दूसरी बात है कि आजकलके अच्छे अच्छे विद्वान् न सिर्फ जैन विद्वान बल्कि सतीशचंद्र विद्याभूष व भारती जैसे अजैन विद्वान भी अपने अपने ग्रंथों तथा लेखामें इन सब बातोंका उल्लेख करते हुए देखे जाते हैं। परंतु ये सब उल्लेख एक दूसरे की देखादेखी हैं. प रीक्षासे उनका कोई सम्बन्ध नहीं और न वे जांच तोल कर लिखे गये हैं । इसी प्रकार के कुछ उल्लेख पिछले भाषापंडितोंके भी पाये जाते हैं । आधुनिक उल्लेखासे इस विषयका कोई टोकन य नहीं हो सकता । और न हम उन्हें एसी हालतमें विना किसी हेतुके प्रमाणकोटि में रख सकत हैं । हमारी रायमें इन सब बाताके निर्णयार्थ विकल्पोंके समाधानार्थ अंतरंग खोजकी बहुत बड़ी जरूरत है। हमें सबसे पहले विदेशो में जानेसे भो पहले-अपने घरके साहित्यको गहरा टटोलना होगा; तब कहीं हम यथार्थ निर्णय पर पहुँच सकेंगे ।
इन सब
अस्तु ।
इस विषय में हमने आजतक जो कुछ खोज की है और उसके द्वारा हमें जो कुछ मालूम हो सका है उसे हम अपने पाठकोंके विचारार्थ और यथार्थ निर्णयकी सहायतार्थ नीचे प्रकट करते हैं:
१ - उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक और श्रुतसागरी नामकी जो टीकाएँ उपलब्ध हैं उनमें, जहां तक हमारे देखनेमें आया कहीं भी 'गंधहस्ति महाभाष्य नामोल्लेख नहीं है और न इसी बात का कोई उल्लेख पाया जाता है कि समन्तभद्रने उक्त तत्त्वार्थसूत्रपर भाष्य लिखा है । समन्तभद्रका अस्तित्वकाल इन सब
का
ओके बनने से पहले माना जाता है। यदि इन टीकाओंके रचयिता पूज्यवाद, अकलंक देव, विद्यानन्द और श्रुतसागर के समय में समन्तभद्रका उसी सूत्रपर ऐसा कोई महत्त्वशाली भाष्य विद्यमान होता तो उक्त टीकाकार किसी न किसी रूप में इस बातको सूचित जरूर करते, ऐसा हृदय कहता है । परंतु उनके टीकाग्रन्थोंसे ऐसी कोई सूचना नहीं
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