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गन्धहस्तिमहाभाष्य की खोज
लोकपरिमाण एक महत्त्वशाली भाष्य पहलेसे मौजूद था तब यह बात समझमें नहीं आती कि सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के बनने की जरूरत ही क्यों पैदा हुई । यदि यह कहा जाय कि ये ग्रन्थ गन्धहस्ति महाभाष्यका सार लेकर संक्षेपरुचिवाले शिष्योंके वास्ते बनाये गये हैं तो यह बात भी कुछ बनती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि ऐसी हालत में श्री पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्द स्वामी अपने अपने ग्रन्थोंमें इस प्रकारका कोई उल्लेख जरूर करते जैसा कि आम तौर पर दूसरे आचार्यों ने किया है, जिन्होंने अपने ग्रन्थोंको दूसरे ग्रन्थोंके आधारपर अथवा उनका सार लेकर बनाया है । परंतु चूँकि इनमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है, इस लिये ये सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थ गन्धहस्तिमहाभाष्यके आधार पर अथवा उसका सार लेकर बनाये गये हैं ऐसा माननेको जी नहीं चाहता। इसके सिवाय अकलंकदेव और विद्यानन्दके भाष्य वार्तिक के ढंगले लिखे गये हैं । वे 'वार्तिक' कहलाते भी हैं । और वार्तिकों में उक्त, अनुक्त, दुरुक्त, तीनों प्रकारके अर्थोको विचारणा और अभिव्यक्ति हुआ करती है, जिससे उनका परिमाण पहले भाष्योंसे प्रायः कुछ बढ जाता है । जैसे कि सर्वार्थसिद्धिसे राजवार्तिकका और राजवार्तिक श्लोकवार्तिकका परिमाण बढा हुआ है । ऐसी हालत में यदि समन्तभद्रका ८४ हजार श्लोक संख्यावाला भाव पहले से मौजूद था तो अकलंक देव और विद्यानन्दके वार्तिकोंका परिमाण उससे जरूर कुछ बढ़ जाना चाहिये था। परन्तु बढना तो दूर रहा, वह उलटा उससे कई गुणा घट रहा है। दोनों वार्तिकी लोकसंख्याका परिमाण क्र. मशः १६ और २० हजार से अधिक नहीं । ऐसी हालतमें कमसेकम अकलंक देव और विद्यानन्दके समयमें गन्धहस्ति महाभाष्यका अस्तित्त्व स्वीकार करनेके लिये तो और भी हृदय तय्यार नहीं होता ।
१० - जिस आप्तमीमांसा ( देवागम स्तोत्र ) को गन्धहस्ति महाभाष्यका मंगलाचरण बतलाया जाता है उसकी अन्तिम कारिका इस प्रकार है
इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥
यह कारिका जिस ढंग और जिस शैलीसे लिखी गई है, और इसमें जो कुछ कथन किया गया है उससे आतमीमांसा के एक बिलकुल स्व तन्त्र ग्रन्थ होनेकी बहुत ज्यादद्द सम्भावना पाई जाती है। इस कारिका को देते हुए वसुनन्दी आ चार्य अपनी टीका में इसे 'शास्त्रार्थोपसंहारकारिका ' लिखते हैं, साथ ही इस कारिकाकी टीकाके अन्त में ग्रंथकर्ता भी समंतभद्रका नाम 'कृतकृत्यः निर्व्यूढतत्त्वप्रतिज्ञः' इत्यादि विशेपणके साथ देते हैं, जिससे मालूम होता है कि इस कारिका के साथ ग्रन्थकी समाप्ति हो गई, ग्रंथ के अन्तर्गत किसी खास विषयकी नहीं । विद्यानंदस्वामी अष्टसहस्रीमें, इस कारिका के द्वारा 'प्रारब्धनिर्वहण - ( प्रारंभ किये हुए कार्यको परिसमाप्ति ) आदिको सूचित करते हुए टीका में लिखते हैं
" इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेद शास्त्रे...। अत्र शस्त्रपरिसमाप्तौ "
इन शब्दोंसे भी प्रायः यही ध्वनित होता है कि देवा मशात्र जो कि आप्तमीमांसाके शुरू में 'देवागम' शब्द होने से उसीका दूसरा नाम है, एक स्वतंत्र ग्रंथ है और उसकी समाप्ति इस कारिकाके साथ ही हो जाती है । अतः वह किसी दूसरे ग्रंथका आदिम अंश अथवा मंगलाचरण मालूम नहीं होता ।
११ -- अकलंकदेव अपनी अटशतीके आरं भ लिखते हैं-"येनाचार्य समन्तभद्रयतिना तस्मै नमः संततम् । कृत्वा वित्रियते स्तवो भगवता देवागमस्तत्कृतिः ” ॥२२॥
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वसुनन्दी आचार्य अपनी देवागमवृत्तिके अन्तमें सूचित करते हैं " श्रीसमंतभद्राचार्यस्य... देवागमाख्यायाः कृते संक्षेपभूतं विवरणं कृतम् ...
..."
कर्नाटकदेशस्थ हुमचा जि० शिमोगा के एक शिलालेख में निम्न आशयका उल्लेख * मि. लता है:
* देखो जैनहितैषी भाग ९, अंक ९, पृष्ठ ४४५ ।
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