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। ( २६ ) प्रामाणिकता तभी तक है जब तक कि वे मूल वाक्यों से अर्थात् श्रुति वाक्यों से या महात्मा बुद्ध के वचनों से या महावीर के वचनों से मेल खायें। अतः जिन तथ्यों को अब तक के वाङ्मय में उद्घाटित कर दिया गया, इसके बाद के साहित्य में उन्हीं तथ्यों का विवेचन, वर्गीकरण और विश्लेषरण होने लगा। इस प्रकार नियमित दर्शनों की नींव पड़ गई। इनमें वे दर्शन जो किसी न किसी रूप में वेदों की प्रामाणिकता को मानते थे, छः आस्तिक दर्शन कहलाये
और जो वेदों की प्रामाणिकता को नहीं मानते थे, वे नास्तिक दर्शन कहलाए। किन्तु इन दर्शनों को नास्तिक या आस्तिक न कहकर वेदमूलक और अवेदमूलक कहना अधिक उपयुक्त होगा। छः दर्शन-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा-वैदिक दर्शन हैं और अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, जैन और बौद्ध आते हैं। इन वैदिक अवैदिक सभी दर्शनों में से चार्वाक पृथक् जा पड़ता है और पूर्वमीमांसा की भी एक अलग दृष्टि है। शेष सात दर्शन एक कोटि के अन्तर्गत आते हैं। चार्वाक दर्शन ने सभी दर्शनों के समान दुख को हेय और सुख को उपादेय तो माना, पर उनका सुख और दुख का रूप कुछ और ही है। यदि सत्य कहें तो सामान्यतः मनुष्य जिसे दुख और सुख मानते हैं, उस लोकप्रिय अर्थ में सुख और दुख का प्रयोग चार्वाकों ने ही किया।
किन्तु चार्वाकों की स्थिति स्पष्ट है। वे सुखों के साधनों को ही सुख मानते हैं। और ये विचार कि किसी उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति के लिए सुखों को छोड़ देना चाहिए, उन्हें समझ में नहीं आता। यदि संसार के विषय भोगों के साथ-साथ हमें कुछ दुख भी भोगने पड़ें, तो यह कहना ठीक नहीं होगा कि हमें वे सुख उस दुख के भय से सर्वथा छोड़ देने चाहिएँ। क्या कोई अत्यन्त उत्तम धान्य को इसलिए छोड़ देता है कि उन पर भूसी का छिलका चढ़ा हया है। अत: विषय सुखों को छोड़ने की चर्चा चार्वाक दर्शन के लिए हास्यास्पद है। जिन-जिन कारणों से अन्य दर्शन विषयभोगों को छोड़ने का उपदेश देते हैं, उन-उन सब कारणों का भी चार्वाक निषेध करता है। बहुत
१. त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्मपुंसां
दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणषा । व्रीहीजिहासति सितोत्तमतण्डुलाढ्यान को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी ॥
सर्वदर्शनसंग्रह, पृ.४