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(२८ ) को और क्या जान लेना शेष रह गया था जिसके लिये उसे यह कहना पढ़ा कि वेद और वेदांग पढ़ लेने पर भी दुख से मेरा छटकारा नहीं हो सका । लगता है कि नारद ने ये उपयुक्त वाक्य तो पढ़े ही होंगे और उसके साथ इतना बड़ा कर्मकाण्ड का आडम्बर था कि उनका ध्यान शायद इस तरफ नहीं गया और फिर इस तरफ तो ध्यान जाने की बात ही क्या थी कि जब स्वयं वेद ने कहा कि परम व्योम में एक ऐसी शक्ति है जिसे जो नहीं मानता, वह भला ऋचाओं को पढ़कर क्या कर सकेगा।' सनत्कुमार ने कर्मकाण्ड के पचड़े से निकाल कर वेद के इन्हीं शाश्वत सत्यों को उपनिषद् में नारद के सामने विस्तारपूर्वक रखा । आत्मस्वरूप का खूब विस्तृत वर्णन उपनिषदों में हुअा, ब्रह्म के स्वरूप की भी खूब चर्चा हुई। पर इस चर्चा के बीच कुछ सीधे सादे सत्य, जो जीवन के लिये अनिवार्य थे, शायद खो गये। वह सन्देश था, मैत्री का सन्देश, मानव-सेवा का सन्देश, समता का सन्देश, अहिंसा का सन्देश। महात्मा बुद्ध के सामने वेद भी थे, उपनिषद् भी थे, और उनमें ये सब सन्देश भी थे किन्तु वेदों के कर्मकाण्डपरक व्याख्यानों ने और उपनिषद्कारों की बाल की खाल निकालने वाली तत्त्वचर्चा के बीच ये सीधे-सादे सत्य खो गये। महात्मा बुद्ध ने देखा कि कर्मकाण्ड तो है, तत्त्व ज्ञान तो है, पर दुख, जरा, विनाश, रोग,
और शोक व्यक्ति को नहीं छोड़ रहे ।२ महात्मा बुद्ध को ऐसा लगा कि सब ज्ञान के और इस सब चर्चा के बावजूद संसार में दुख है तो इस दुख का कोई कारण भी होना चाहिए और उस कारण का निवारण भी होना चाहिए। केवल ऐसा कह देने से तो गुजारा नहीं चलेगा कि संसार में दुख है, तो है ही, क्या किया जा सकता है ? व्यक्ति को प्रात्मावलम्बी बनना होगा, जागरूक होना होगा और इस दुख की जड़ पर चोट करनी होगी। __महात्मा बुद्ध के बाद यह दुख की सत्ता की अनुभूति तीव्र से तीव्रतर होती चली गई। वस्तुस्थिति यह है कि महावीर और महात्मा बुद्ध के बाद भारतीय चिन्तन एक नई दिशा में मोड़ लेता है। दर्शन के क्षेत्र में मौलिकता एक प्रकाश से समाप्त हो जाती है और इसलिए स्वतः प्रमाण रचनाओं का काल भी समाप्त हो जाता है। इसके बाद की जितनी रचनाएँ हैं, वे चाहे हिन्दू धर्म की हों, चाहे बौद्ध या जैन धर्म की, परतः प्रमाण हैं अर्थात् उनकी
१. ऋग्वेद. १.१६४.३६ २. अङ्गत्तरनिकाय, लन्दन, १९५१, ३.६२.१० ३. वही, ३.६१.१.१-१३