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( ३० ) से शास्त्र परलोक के प्रलोभन देकर इहलोक के विषय भोगों को छोड़ने की बात कहते हैं, बहुत से दर्शन, शास्त्रों को ही प्रमाण मानकर उनके वाक्य उद्धृत करते हैं, जिनमें यह कहा गया है कि विषयभोग छोड़ देने चाहिएँ ।
और कुछ दर्शन परमात्मा का भय दिखाकर विषयभोगों को छोड़ने का उपदेश देते हैं। किन्तु चार्वाक ने इन सबका खण्डन कर दिया। उसने न परलोक को माना, न शास्त्रों को माना, और न ईश्वर को। वे शुद्ध प्रत्यक्षवादी हैं, उतने मात्र को ही सत्य मानते हैं जितना प्रत्यक्ष दिखाई देता है। किन्तु हम जानते हैं कि प्रत्यक्ष द्वारा सत्य का एक अंश ही जाना जा सकता है। शरीर के रोगों का यदि प्रत्यक्ष के आधार पर उपचार करने चलें तो कोई भी चिकित्सक इस बात की साक्षी दे सकता है कि हमारे उपचार अधूरे और उपहासात्मक होंगे । यदि हम मन का विश्लेषण केवल प्रत्यक्ष मन अर्थात् चेतन मन को सामने रखकर करें तो घोर नास्तिक मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत होगा, कि हम केवल मन के बहुत थोड़े भाग को लगभग १. भाग को ही जान पाएँगे । हमारे मन का बहुत बड़ा अंश अर्द्धचेतन और अचेतन है जिसे हम प्रत्यक्ष द्वारा नहीं जान पाते । जिस प्रकार बर्फ का एक टुकड़ा यदि पानी में डाल दिया जाय, तो उसका थोड़ा सा भाग ही पानी से बाहर होता है, शेष भाग पानी के अन्दर छिपा रहता है, ऐसी ही अवस्था हमारे मन की है। यदि चिकित्सक शरीर के सम्बन्ध में केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानकर नहीं चल सकता और यदि मनोवैज्ञानिक मन के सम्बन्ध में मन के प्रत्यक्ष भाग को सत्य' मानने पर धोखा खाता है तो यदि दार्शनिक जीवन में केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मान ले, तो उसकी क्या गति होगी, यह स्पष्ट है । क्योंकि हमारे शरीर का जितना भाग अप्रत्यक्ष है, उससे कहीं अधिक अप्रत्यक्ष हमारे मन का भाग है और हमारे मन का जितना भाग है अप्रत्यक्ष है, हमारे जीवन का तो उससे भी कहीं अधिक भाग अप्रत्यक्ष है। गीता में कहा है कि हमारा जीवन केवल मध्य में ही व्यक्त है। उसका आदि और अन्त अव्यक्त है।' जिस प्रकार मानव जाति का प्रारम्भ और अन्त अज्ञात है, जीवन का अन्त भी और प्रारम्भ भी उसी प्रकार अज्ञात है, परोक्ष है।
किन्तु चार्वाक दर्शन ने भी हमें एक दृष्टि दी। उसने हर मान्यता को तर्क
१. अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत !
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।
-गीता २.२८