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काशीराज यह सुन-सुनकर और जले । उन्होंने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई कौशलराजको ज़िन्दा या मरा हुआ लायेगा उसे हज़ार अशर्फ़ी इनाम दी जायेंगी ।
कौशलराज फटेहाल जंगल-जंगल मारे फिर रहे थे । एक दिन एक दुर्दशाग्रस्त वणिक् - पथिकने उनसे कौशल देशका रास्ता पूछा ।
राजाने पूछा- 'उस अभागे देशमें क्यों जा रहा है, भाई ?' वणिक्की धनहानिकी दुःखगाथा सुनकर राजा सजल-नेत्र हो गये । बोले—'चल तेरी मनोकामना पूर्तिका मार्ग बताऊँ ?'
जटाजूट राजा उसे काशीराजके दरबार में ले गये । कहा'काशीराज ! मैं कोशलराज हूँ । मुझे पकड़कर लानेवाले के लिए आपने जो इनाम घोषित किया है वह मेरे इस साथीको प्रदान कराइए ।'
सारी सभा में सन्नाटा छा गया । काशीराज भी स्तम्भित रह गये ! कुछ क्षण बाद शान्त स्वरोंमें बोले – 'कौशलराज, तुम धन्य हो ! मैं तुम्हें तुम्हारा सारा राज्य देता हूँ और अपना हृदय भी । अब इसी सिंहासनपर बैठकर राज्य भण्डारमेंसे इस वणिक्को जितना चाहो धन दे दो ।'
यह कहकर उन्होंने उन्हें सिंहासनपर बिठाकर राजमुकुट पहनाया । सारी सभा हर्पित हो जय-जयकार करने लगी ।
- टैगोरकी एक कहानी के आधारपर
वैराग्य
श्री शुकदेवजी जन्मते ही वनको चलने लगे। यह देखकर उनके पिता श्री व्यासजी बोले - ' बेटा ! कुछ दिन ठहरो । मैं तुम्हारे कुछ संस्कार तो कर दूँ ।'
इसपर शुकदेवजीने कहा - 'अब तक जन्म-जन्मान्तरोंमें मेरे असंख्य संस्कार हो चुके हैं । उन्होंने ही मुझे भव-वन में भटका रक्खा है । इसलिए अब मैं उनसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहता ।'
सन्त-विनोद
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