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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
पिता को घर से बाहर श्मशान में निकाल देते हैं । उसी प्रकार पुत्र को पिता और बन्धु को अन्य बन्धु भी बाहर निकालते हैं । अतः राजन् ! तू तप का आचरण कर ।”
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[ ५७५-५७६ ] – “मृत्यु के बाद उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन का तथा सुरक्षित स्त्रियों का हृष्ट, तुष्ट एवं अलंकृत होकर अन्य लोग उपभोग करते हैं ।" - "जो सुख अथवा दुःख के कर्म जिस व्यक्ति ने किए हैं, वह अपने उन कर्मों के साथ परभव में जाता है ।"
[५७७-५७८] अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया । राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया ।
[५७९] राष्ट्र को छोड़कर प्रव्रजित हुए क्षत्रिय मुनि ने एक दिन संजय मुनि को कहा" तुम्हारा यह रूप जैसे प्रसन्न है, वैसे ही तुम्हारा अन्तर्मन भी प्रसन्न है ।"
[५८०] क्षत्रिय मुनि - "तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा गोत्र क्या है ? किस प्रयोजन से तुम महान् मुनि बने हो ? किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो ? किस प्रकार विनीत कहलाते हो ?
[५८१] संजय मुनि - " मेरा नाम संजय है । मेरा गोत्र गौतम है । विद्या और चरण के पारगामी 'गर्दभालि' मेरे आचार्य हैं ।”
[५८२ - ५८३ ] क्षत्रिय मुनि - “हे महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान-इन चार स्थानों के द्वारा कुछ एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता असत्य तत्त्व की प्ररूपणा करते हैं । " “बुद्ध, उपशान्त, विद्या और चरण से संपन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने ऐसा प्रकट किया है ।"
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[५८४ - ५८६ ] – “जो मनुष्य पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं । और जो आर्यधर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं ।" " यह क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का सब कथन मायापूर्वक है, अतः मिथ्या वचन है, निरर्थक है । मैं इन मायापूर्ण वचनों से बचकर रहता हूँ, बचकर चलता हूँ ।" "वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं । मैं परलोक में रहे हुए अपने को अच्छी तरह से जानता हूँ ।" [५८७-५८८] - " मैं पहले महाप्राण विमान में वर्ष शतोपम आयु वाला द्युतिमान् देव था । जैसे कि यहाँ सौ वर्ष की आयुपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही वहाँ पल्योपम एवं सागरीपम की दिव्य आयु पूर्ण है ।" "ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ । मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी जानता हूँ ।"
[५८९] - " नाना प्रकार की रुचि और छन्दों का तथा सब प्रकार के अनर्थक व्यापारों का संयतात्मा मुनि को सर्वत्र परित्याग करना चाहिए । इस तत्त्वज्ञानरूप विद्या का लक्ष्य कर संयमपथ पर संचरण करे ।"
[५९०-५९१] –“मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नों से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ । अहो ! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ । यह जानकर तुम भी तप का आचरण करो ।” –“जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो,
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उसे सर्वज्ञ ने प्रकट किया है । अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है ।"