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________________ ८७ उत्तराध्ययन- १८/५९२ [ ५९२] - धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया का त्याग करे । सम्यक् दृष्टि से दृष्टिसंपन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो ।” [५९३-६०२] –“अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हुए थे ।" - " नराधिप सागर चक्रवर्ती सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए ।" - " महान् ऋद्धि-संपन्न, यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार की ।" - " महान् ऋद्धि-संपन्न, मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तप का आचरण किया ।" - " महान् ऋद्धि-संपन्न और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की ।" "इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर, विख्यातकीर्त्ति, धृतिमान् कुन्थुनाथ ने अनुत्तर गति प्राप्त की ।" - "सागरपर्यन्त भारतवर्ष को छोड़ कर, कर्म-रज को दूर करके नरेश्वरों में श्रेष्ठ 'अर'ने अनुत्तर गति प्राप्त की ।" " भारतवर्ष को छोड़कर, उत्तम भोगों को त्यागकर 'महापद्म' चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया ।" - "शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एकछत्र शासन करके फिर अनुत्तर गति प्राप्त की ।" - " हजार राजाओं के साथ श्रेष्ठ त्यागी जय चक्रवर्ती ने राज्य का परित्याग कर जिन भाषित संयम का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की ।" [६०३-६०४] –“साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होकर दशार्ण-भद्र राजा ने अपने सब प्रकार से प्रमुदित दशार्ण राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि धर्म का आचरण किया ।" "विदेह के राजा नमि श्रामण्य धर्म में भली-भाँति स्थिर हुए, अपने को अति विनम्र बनाया ।” [६०५-६०६] – “कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गन्धार में नग्गति - "राजाओं में वृषभ के समान महान् थे । इन्होंने अपने - अपने पुत्र को राज्य में स्थापित कर श्रामण्य धर्म स्वीकार किया ।" [६०७-६१०] - सौवीर राजाओं में वृषभ के समान महान् उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की ।" - " इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने काम-भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का नाश किया ।" - " अमरकीर्त्ति, महान् यशस्वी विजय राजा ने गुण - समृद्ध राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली ।" - " अनाकुल चित्त से उग्र तपश्चर्या करके राजर्षि महाबल ने अहंकार का विसर्जन कर सिद्धिरूप उच्च पद प्राप्त किया । [६११] "इन भरत आदि शूर और दृढ पराक्रमी राजाओं ने जिनशासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था । अतः अहेतुवादों से प्रेरित होकर अव कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे ?" [ ६१२] - " मैंने यह अत्यन्त निदानक्षम - सत्य - वाणी कही है । इसे स्वीकार कर अनेक जीव अतीत में संसार - समुद्र से पार हुए हैं, वर्तमान में पार ही रहे हैं और भविष्य में पार होंगे ।” [६१३] - धीर साधक एकान्तवादी अहेतु वादों में अपने आप को कैसे लगाए ?
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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