________________
उत्तराध्ययन-१७/५५६
[५५६] जो अपने घर को छोड़कर परघर में व्यापृत होता है-शुभाशुभ बतलाकर द्रव्यादिक उपार्जन करता है, वह पापश्रमण है ।
[५५७] जो अपने ज्ञातिजनों से आहार ग्रहण करता है, सभी घरों से सामुदायिक भिक्षा नहीं चाहता है, गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप-श्रमण है ।
[५५८] जो इस प्रकार आचरण करता है, वह पार्श्वस्थादि पाँच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत है, केवल मुनिवेष का ही धारक है, श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है । वह इस लोक में विषकी तरह निन्दनीय होता है, अतः न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का ।
[५५९] जो साधु इन दोषों को सदा दूर करता है, वह मुनियों में सुव्रत होता है । इस लोक में अमृत की तरह पूजा जाता है । अतः वह इस लोक तथा परलोक दोनों की आराधना करता है | -ऐसा मैं कहता हूँ ।
( अध्ययन-१८-संजयीय) [५६०-५६२] काम्पिल्य नगर में सेना और वाहन से सुसंपन्न ‘संजय' नाम का राजा था । एक दिन मृगया के लिए निकला । वह राजा सब ओर से विशाल अश्वसेना, गजसेना, रथसेना तथा पदाति सेना से परिवृत था । राजा अश्व पर आरूढ़ था । वह रस-मूर्छित होकर काम्पिल्य नगर के केशर उद्यान की ओर ढकेले गए भयभीत एवं श्रान्त हिरणों को मार रहा था ।
[५६३-५६५] उस केशर उद्यान में एक तपोधन अनगार स्वाध्याय एवं ध्यान में लीन थे, धर्मध्यान की एकाग्रता साध रहे थे । आश्रव का क्षय करने वाले अनगार लतामण्डप में ध्यान कर रहे थे । उनके समीप आए हिरणों का राजा ने बध कर दिया । अश्वारूढ़ राजा शीघ्र वहाँ आया । मृत हिरणों को देखने के बाद उसने वहाँ एक ओर अनगार को भी देखा।
[५६६-५६८] राजा मुनि को देखकर सहसा भयभीत हो गया । उसने सोचा-"मैं कितना मन्दपुण्य, स्सासक्त एवं हिंसक वृत्ति का हूँ कि मैंने व्यर्थ ही मुनि को आहत किया है ।" घोड़े को छोड़कर उस राजा ने विनयपूर्वक अनगार के चरणों को वन्दन किया और कहा कि-"भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें ।" वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे । उन्होंने राजा को कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया, अतः राजा और अधिक भयाक्रान्त हुआ ।
[५६९] --"भगवन् ! मैं संजय हूँ | आप मुझ से कुछ तो बोलें । मैं जानता हूँक्रुद्ध अनगार अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को जला डालते हैं ।"
[५७०-५७२] “पार्थिव ! तुझे अभय है । पर, तू भी अभयदाता बन । इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में संलग्न है ?" - "सब कुछ छोड़कर जब तुझे यहाँ से अवश्य लाचार होकर चले जाना है, तो इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?” “राजन् ! तू जिसमें मोहमुग्ध है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल है । तू अपने परलोक के हित को नहीं समझ रहा है ।" . [५७३-५७४] “स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र तथा बन्धुजन जीवित व्यक्ति के साथ ही जीते हैं । कोई भी मृत व्यक्ति के पीछे नहीं जाता है-" - "अत्यन्त दु:ख के साथ पुत्र अपने मृत