SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद ( अध्ययन-१७-पापश्रमणीय) [५३९] जो कोई धर्म को सुनकर, अत्यन्त दुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त करके पहले तो विनय संपन्न हो जाता है, निर्ग्रन्थरूप में प्रव्रजित हो जाता है, किन्तु बाद में सुख-स्पृहा के कारण स्वच्छन्द-विहारी हो जाता है । [५४०-५४१) रहने को अच्छा स्थान मिल रहा है । कपड़े मेरे पास हैं । खाने पीने को मिल जाता है । और जो हो रहा है, उसे मैं जानता हूँ । भन्ते ! शास्त्रों का अध्ययन करके मैं क्या करूँगा ?" जो कोई प्रव्रजित होकर निद्राशील रहता है, यथेच्छ खा-पीकर बस आराम से सो जाता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है । [५४२-५४३] जिन आचार्य और उपाध्यायों से श्रुत और विनय ग्रहण किया है, उन्हीं की निन्दा करता है, उनकी चिन्दा नहीं करता है, अपितु उनका अनादर करता है, जो ढीठ है, वह पाप श्रमण कहलाता है । [५४४] जो प्राणी, बीज और वनस्पति का संमर्दन करता रहता है, जो असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है । [५४५] जो संस्तारक, फलक-पाट, पीठ, निषद्या-भूमि और पादकम्बल-का प्रमार्जन किए बिना ही उन पर बैठता है, वह पापश्रमण है । [५४६] जो जल्दी-जल्दी चलता है, पुनः पुनः प्रमादाचरण करता रहता है, मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, क्रोधी है वह पापश्रमण है । [५४७-५४८] जो प्रमत्त होकर प्रतिलेखन करता है, पात्र और कम्बल जहाँ-तहाँ रख देता है, प्रतिलेखन में असावधान रहता है, जो इधर-उधर की बातों को सुनता हुआ प्रमत्तभाव से प्रतिलेखन करता है, जो गुरु की अवहेलना करता है, वह पापश्रमण कहलाता है । [५४९] जो बहुत मायावी है, वाचाल है, धीठ है, लोभी है, अनिग्रह है-प्राप्त वस्तुओं का परस्पर संविभाग नहीं करता है, जिसे गुरु के प्रति प्रेम नहीं है, वह पापश्रमण है । [५५०] जो शान्त हुए विवाद को पुनः उखाड़ता है, अधर्म में अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, कदाग्रह तथा कलह में व्यस्त है, वह पापश्रमण है । [५५१] जो स्थिरता से नहीं बैठता है, हाथ-पैर आदि की चंचल एवं विकृत चेष्टाएँ करता है, जहाँ-तहाँ बैठ जाता है, जिसे आसन पर बैठने का उचित विवेक नहीं है, वह पापश्रमण है । [५५२] जो रज से लिप्त पैरों से सो जाता है, शय्या का प्रमार्जन नहीं करता है, संस्तारक के विषय में असावधान है, वह पापश्रमण है ।। [५५३] जो दूध, दही आदि विकृतियाँ बार-बार खाता है, जो तप-क्रिया में रुचि नहीं रखता है, वह पापश्रमण-कहलाता है । [५५४] जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार खाता रहता है, समझाने पर उलटा पड़ता है-वह पाप-श्रमण कहलाता है । [५५५] जो अपने आचार्य का परित्याग कर अन्य पाषण्ड-को स्वीकार करता है, जो गाणंगणिक होता है वह निन्दित पापश्रमण है ।
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy